गोरखपुर, 24 अगस्त (Udaipur Kiran) । महाराणा प्रताप महाविद्यालय, जंगल धूसड़, गोरखपुर में ब्रह्मलीन राष्ट्रसंत महंत अवेद्यनाथ की ग्यारहवीं पुण्यतिथि की स्मृति में आयोजित सप्तदिवसीय व्याख्यान माला के चतुर्थ दिवस पर ‘आल द ग्लिटर्स इज डेफिनेटली नॉट गोल्ड इन इंडियन रसशास्त्र’ विषय पर मुख्य वक्ता के रूप में आईआईटी- बीएचयू वाराणसी के रसायनशास्त्र विभाग के आचार्य डॉ. वी. रामानाथन ने महत्वपूर्ण और सारगर्भित जानकारी साझा की।
डॉ. वी. रामनाथन ने व्याख्यान की शुरुआत प्रसिद्ध वैज्ञानिक विलियम रामसे के कथन से की, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘जो देश रसायन विज्ञान में दुनिया से आगे होगा, वही धन-समृद्धि में भी सबसे आगे रहेगा।’ उन्होंने भारतीय इतिहास में रसायन विज्ञान और धातुकर्म की अविस्मरणीय भूमिका को प्रमुखता दी। उन्होंने बताया कि प्राचीन भारत में रसायन विज्ञान केवल रसायन की सीमाओं तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें धातुकर्म, पदार्थ विज्ञान और औषधि शास्त्र जैसे अनेक विषय शामिल थे। आयुर्वेद एवं अन्य प्राचीन ग्रंथों में स्वर्ण, चांदी, तांबा, लोहा जैसी कई धातुओं का उल्लेख मिलता है। भारत में ही जस्ता निष्कर्षण की अनूठी कला विकसित हुई। प्राचीन भारत का रसायन विज्ञान अत्यंत व्यापक क्षेत्र वाला था।
डॉ. रामनाथन ने कहा कि मध्यकालीन भारतीय साहित्य में वर्णित रसायनशास्त्रीय विधियां पश्चिमी अलकेमिस्टों की कल्पनाओं से भिन्न थीं। इन विधियों में खारपर (कैलामाइन) जैसे पदार्थों का उपयोग करते हुए धातुओं की शुद्धि और मिश्रण की तकनीकें सटीक रूप से स्थापित थीं। भारतीय धातुकर्म यूरोप, मिस्र, मेसोपोटामिया और चीन की तुलना में अधिक व्यवस्थित और तकनीकी दृष्टि से उन्नत था।
डॉ. रामनाथन ने इस बात पर जोर दिया कि धातु परिवर्तन जैसे सिद्धांतों को केवल मिथक माना जाना चाहिए, क्योंकि आधुनिक भौतिक एवं परमाणु विज्ञान के आधार पर धातु के परमाणुओं में मूलभूत बदलाव संभव नहीं। ऐसे परिवर्तन के लिए अणु के नाभिक में परमाणु स्तर पर परिवर्तन आवश्यक होता है, जिसमें अत्यधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह मानवीय सीमा के परे है और वैज्ञानिक रीति से असंभव है। साथ ही, उन्होंने प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में पाए जाने वाले पद्यात्मक और प्रतीकात्मक भाष्य की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया कि जैसे रसरत्नाव के एक श्लोक में वर्णित पीतल बनाने की तकनीक को सोने में रूपांतरण समझना गलत है। उन्होंने कहा कि भारत की धातुकर्म परंपरा, जो 300 ईसा पूर्व के अर्थशास्त्र में वर्णित सोने के विभिन्न रूपों और उनकी शुद्धि की तकनीकों से लगभग दो हजार साल तक निरंतर विकसित होती रही, अपने आंकड़ों और विधियों में अत्यंत विशिष्ट और व्यवस्थित थी। उन्होंने यह भी बताया कि पश्चिमी शोधकर्ताओं द्वारा भारतीय रसशास्त्र को अल्केमी की संकीर्ण दृष्टि से देखने के कारण इसके वैज्ञानिक मूल्य का गलत आंकलन हुआ है।
उन्होंने कहा कि इस व्याख्यान में भारत की वैज्ञानिक उन्नति के साथ-साथ उसकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक उपलब्धियों का एक व्यापक पुनर्मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया, जो आधुनिक विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में नए आयाम खोल सकता है।
रसशास्त्र आयुर्वेद का अलौकिक विज्ञान : डॉ. आरती सिंह
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए महाविद्यालय के हिंदी विभाग की अध्यक्ष डॉ.आरती सिंह ने कहा कि रसशास्त्र एक ऐसा विषय है जिसकी जड़ें हमारी भारतीय परंपरा में गहराई तक समाई हुई हैं। रसशास्त्र, आयुर्वेद की वह अमूल्य शाखा है, जिसमें धातुओं, खनिजों और रसायनों को विशुद्ध कर औषधि एवं बहुमूल्य धातु के रूप में तैयार किया जाता है। उन्होंने आगे कहा कि यह केवल औषधि विज्ञान नहीं, बल्कि शुद्धि, संस्कार और स्वास्थ्य का विज्ञान है। इसे आयुर्वेद का ‘अलौकिक विज्ञान’ भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ ताम्र से लेकर पीतल, लौह से लेकर स्वर्ण तक हर धातु का उपयोग करके उनकी मिश्रधातु को बनाने की तकनीक हमारे ग्रंथों में वर्षो से ज्ञात है जो मानव समाज में विभिन्न प्रकार से उपयोग में लाती जाती है।
कार्यक्रम का संचालन महायोगी गोरखनाथ विश्वविद्यालय, बालापार, सोनबरसा, गोरखपुर के फैकल्टी ऑफ लाइफ एंव हेल्थ साइंस विभाग के सहायक आचार्य डॉ. मनीष त्रिपाठी ने किया। इस अवसर पर महाविद्यालय के शिक्षक और विद्यार्थी उपस्थित रहे।
(Udaipur Kiran) / प्रिंस पाण्डेय
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