सदियों से धर्मस्थल केवल एक तीर्थस्थल ही नहीं, बल्कि प्रतिष्ठित ‘न्याय’ परंपरा का केंद्र रहा है — एक ऐसी पवित्र मध्यस्थता प्रणाली जो निष्पक्षता, विश्वास और सामुदायिक सहमति पर आधारित है। आज यह परंपरा ऐसे आंदोलन के निशाने पर है, जो खुद को न्याय का पैरोकार बताता है, लेकिन असल में निजी रंजिश से प्रेरित है।
इस अभियान के केंद्र में महेश शेट्टी थिमरोडी हैं, जो स्वयं को हिंदू राष्ट्रवादी बताते हैं और अपने कुछ समर्थकों के छोटे समूह का संचालन करते हैं। बेल्थंगडी तालुक के उजिरे गांव में जन्मे महेश की सार्वजनिक छवि एक संघर्षशील कार्यकर्ता की है, लेकिन अदालत के रिकॉर्ड एक अलग ही कहानी बताते हैं — धर्मस्थल की न्याय प्रणाली के तहत हुए भूमि विवादों में लगातार पराजय। ये प्रतिकूल फैसले न केवल उनकी निजी नाराज़गी का कारण बने हैं, बल्कि संस्था की विश्वसनीयता को कमजोर करने की मंशा भी जगाते हैं।
महेश के आरोप, 2012 के चर्चित सौजन्या बलात्कार और हत्या मामले में पीड़िता के माता-पिता के साथ गठजोड़ से और तेज़ हुए हैं। हालांकि, स्थानीय समुदाय के कुछ वर्ग इन आरोपों को संदेह की नजर से देखते हैं और यहां तक कि निंदा भी करते हैं। कई लोगों का कहना है कि वह शोक संतप्त परिवारों की भावनाओं का इस्तेमाल राजनीतिक और आर्थिक लाभ के लिए कर रहे हैं।
इस आंदोलन का पैमाना भी सवाल खड़े करता है। ‘जन न्याय’ के नारों के पीछे एक ऐसा संचालन तंत्र है, जिसमें सुसंगठित अभियान, सटीक लॉजिस्टिक और ऐसे संसाधन हैं, जो सामान्य जन आंदोलनों से कहीं अधिक हैं। इन फंड के स्रोत अब तक स्पष्ट नहीं हैं। इसके साथ ही, महेश का निष्पक्ष ‘सत्य परीक्षण’ से बचना और अपनी सुविधानुसार शर्तें रखना, उनकी नीयत पर और संदेह पैदा करता है।
अब यह मामला केवल सशक्त लोगों को जवाबदेह ठहराने का नहीं रहा। यह एक सोची-समझी कोशिश है धर्मस्थल की नैतिक प्रतिष्ठा को कमजोर करने और एक सम्मानित न्याय प्रणाली की जगह भीड़-चालित अराजकता लाने की। अगर ‘न्याय की भूमि’ ऐसे निजी दुश्मनी से प्रेरित अभियानों के आगे झुक गई, तो इसका असर सिर्फ धर्मस्थल तक सीमित नहीं रहेगा — यह उन सभी समुदायों के दिल पर चोट करेगा, जो आज भी मानते हैं कि सत्य को दिखावे पर विजय पानी चाहिए।
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