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बुजुर्ग माता-पिता के प्रति उपेक्षा और क्रूरता अनुच्छेद 21 का उल्लंघनः हाईकोर्ट

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–हाईकोर्ट ने सरकार द्वारा पिता को मुआवजे का आंकलन करने के बाद बेटों के आचरण की निंदा की

प्रयागराज, 24 जुलाई (Udaipur Kiran) । इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुजुर्ग माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि बुजुर्ग माता-पिता के साथ क्रूरता, उपेक्षा या उनका परित्याग संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सम्मानपूर्वक जीवन जीने के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।

न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार की पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि बच्चों के लिए अपने बुजुर्ग माता-पिता की गरिमा, कल्याण और देखभाल की रक्षा करना एक पवित्र नैतिक कर्तव्य और वैधानिक दायित्व दोनों है। न्यायालय ने यह टिप्पणी की कि जब ’पुत्रवत’ कर्तव्य समाप्त हो जाता है, तो न्यायालयों को कमजोर बुजुर्गों की रक्षा के लिए “करुणा के अंतिम गढ़“ के रूप में उभरना चाहिए।

यह आदेश कोर्ट ने राम दुलार गुप्ता की याचिका पर पारित किया है। खंडपीठ ने कहा कि जैसे-जैसे उनकी शारीरिक शक्ति कम होती जाती है और बीमारियां बढ़ती जाती हैं, माता-पिता दान नहीं, बल्कि उन्हीं हाथों से सुरक्षा, सहानुभूति और साथ चाहते हैं, जिन्हें उन्होंने कभी थामा था और जिनका पालन-पोषण किया था। न्यायालय ने ये टिप्पणियां एक 75 वर्षीय व्यक्ति द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए की, जिसमें उसने प्राधिकारियों द्वारा उसकी भूमि अधिग्रहण किए जाने पर मुआवजे के रूप में 21 लाख रुपये से अधिक की राशि जारी करने की मांग की थी।

जबकि मुआवजे का आंकलन पहले ही किया जा चुका था और 16 जनवरी, 2025 को भुगतान नोटिस जारी किया गया था, लेकिन याचिकाकर्ता के बेटों द्वारा उठाए गए विवाद के कारण राशि का भुगतान नहीं किया गया। बेटों ने भूमि पर बने भवन में सह-स्वामित्व का दावा किया था। 17 जुलाई, 2025 को न्यायालय ने दर्ज किया कि याचिकाकर्ता के दो बेटों ने अपने पिता को मुआवजे के पूर्ण वितरण का विरोध किया था, क्योंकि उन्होंने तर्क दिया था कि उन्होंने भी भवन निर्माण में योगदान दिया था।

दूसरी ओर याची का कहना था कि पूरा भवन उनके अपने संसाधनों से बनाया गया था। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि मुआवजे की घोषणा के बाद, उनके बेटों ने उन्हें गंभीर मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार बनाया। उन्होंने अपने बेटों के हाथों लगी चोटों को भी दिखाया। 18 जुलाई को भी याचिकाकर्ता पिता ने न्यायालय के समक्ष उपस्थित होकर दावा किया कि जैसे ही मुआवजे की घोषणा की गई, उसके बाद से ही याची के बच्चों द्वारा उसके साथ आक्रामकता और क्रूरता का व्यवहार किया जाने लगा। हालांकि, बेटों के आचरण के बावजूद, याची ने अपनी इच्छा से मुआवजे का एक हिस्सा अपने बेटों के साथ बांटने की इच्छा व्यक्त की। कोर्ट के समक्ष, बेटों ने अदालत में बिना शर्त माफ़ी भी मांगी और आश्वासन दिया कि ऐसा व्यवहार दोबारा नहीं होगा।

हाईकोर्ट ने याचिका को निस्तारित कर कहा “माता-पिता अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण वर्ष अपने बच्चों के पोषण, शिक्षा और भविष्य के लिए कड़ी मेहनत करते हुए बिताते हैं। बदले में कोई उम्मीद नहीं रखते। लेकिन अपने जीवन के अंतिम क्षणों में क्रूरता, उपेक्षा या परित्याग के रूप में चुकाया जाना न केवल नैतिक अपमान है, बल्कि कानूनी उल्लंघन भी है। “न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि अपने बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल करना बच्चों का न केवल नैतिक दायित्व है, बल्कि उनका वैधानिक और संवैधानिक कर्तव्य भी है।

कोर्ट ने कहा कि एक घर जो बुजुर्ग माता-पिता के लिए प्रतिकूल हो गया है, वह अब एक आश्रय नहीं है; यह अन्याय का स्थल है। न्यायालयों को ’पारिवारिक गोपनीयता’ की आड़ में इस मूक पीड़ा को जारी रखने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।

इस प्रकार, यह देखते हुए कि याची अधिग्रहित भूमि का निर्विवाद मालिक है, तथा दोनों पक्षों के आश्वासन को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने आदेश दिया कि बिना किसी और देरी के याची के पक्ष में मुआवजा जारी किया जाए। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि भविष्य में बेटों ने कोई हस्तक्षेप किया तो याची को पुनः न्यायालय में जाने की स्वतंत्रता होगी और न्यायालय ’कड़े’ आदेश पारित करेगा।

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(Udaipur Kiran) / रामानंद पांडे

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