व्योमेश चन्द्र जुगरान: पूरे देश ने टीवी चैनलों पर मंगलवार दोपहर करीब एक बजे उत्तरकाशी जिले के धराली कस्बे पर कुदरती कहर देखा। गंगोत्री धाम से करीब 23 किलोमीटर पहले स्थित एक खूबसूरत पड़ाव पल भर में जमींदोज हो गया। लोगों ने इससे पहले 13-14 मई 2013 की केदारनाथ त्रासदी और 7 फरवरी 2021 का चमोली जिले में ऋषिगंगा और धौली गंगा के अप्रत्याशित सैलाब की दर्दनाक तस्वीरें देखी थीं। तब से लेकर अब तक पहाड़ न जाने कितने छोटे-बड़े प्रकोप झेलता आया है। वक्त इस मायने में बहुत बेरहम होता है कि घावों को भले भर दे, मगर मौतों को भी भुला देता है। यह ‘भुला देना’ ही धराली जैसे कस्बों के लिए महंगा पड़ गया।
लकड़ी के घर : आज से कई साल पहले जब मैं धराली गया था, तो गंगोत्री जाती सड़क के निचले छोर पर गिनती की दुकानें थीं और ऊपरी छोर पर बसा था, हरे-भरे खेतों से घिरा लकड़ी और पत्थर के खूबसूरत स्थापत्य वाले मकानों का यह गांव। तब धराली और आसपास के ऊंचाई वाले गांव सर्दियों में नीचे घाटी में बने अपने शीतकालीन बसेरों (बगडों) में शिफ्ट हो जाते थे। उन्हें इन बसेरों तक पहुंचाने के लिए उत्तरकाशी से आने वाली बस सिर्फ धराली तक का ही फेरा लगाती थी। यात्रा सीजन में हुई कमाई, कृषि उत्पाद और माल-असबाब के साथ गांवों के दर्जनों परिवार नीचे घाटियों में चले आते थे। वहीं हस्तशिल्प का उनका छिटपुट कारोबार और बच्चों का स्कूल हुआ करता था।
चलन बदला : आज सारा परिदृश्य बदल चुका है। मौसमी बदलाव के कारण ‘बगड़ों’ में जाने का चलन नहीं रहा। अन्न उपजाने वाले खेत कंक्रीट के बहुमंजिला होटलों और महंगे होम-स्टे में बदल चुके हैं। धराली एक टूरिस्ट डेस्टिनेशन बन चुका है और यहां होटलिंग से आजीविका चलाने वाली एक ठीक-ठाक आबादी बस चुकी है। सीजन में यहां 300 से लेकर 400 तक लोग हरदम बने रहते हैं। पास में ही हर्सिल और मुखबा गांव हैं। मुखबा गंगोत्री धाम का शीतकालीन प्रवास है।
खीर गदेरे का अतिक्रमण : धराली के फैलाव और बसावट में जो सबसे बड़ी भूल लगातार होती रही, वह है इसके पास बहने वाले खीर गदेरे (छोटी नदी) का अतिक्रमण। इसके इर्दगिर्द पहले खेत थे, अब बहुमंजिला होटल/मकान हैं। उत्तराखंड में चप्पे-चप्पे पर नदियों और गदेरों के किनारे बसावट में नियम-कायदों का कोई मतलब नहीं रह गया है। सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न जनहित याचिकाओं में समय-समय पर गाइडलाइन जरूर दी है, मगर इन्हें ताक पर रखकर अनाप-शनाप निर्माण जैसे पहाड़ों में रिवाज हो चला है।
मौसमी बदलावों से बेपरवाह : मौसमी बदलावों के कारण ऊपरी हिमालय में ग्लेशियरों के गलन की बढ़ती गति और भूगर्भीय हलचलें बड़े पैमाने पर मलबा जुटा रही हैं। वहां बारिश और हिमस्खलन से अस्थायी झीलें बन रही हैं। बादल फटने और अतिवृष्टि जैसे प्रकोपों के दौरान मौका पाते ही सारा मलबा बाढ़ और भूस्खलन को साथ लेकर कई गुना ताकत से बहकर नीचे तबाही मचा डालता है। पुराने समय में लोगों को प्रकृति के साथ रहने और उसका मिजाज समझने का गहरा सलीका आता था लेकिन अब खासकर पहाड़ों में पर्यटन के बढ़ते रुझान ने नए तरह के दबाव पैदा किए हैं।
बारूद का ढेर : भू-गर्भशास्त्री धराली को पहले से बारूद का ढेर बताते रहे हैं, लेकिन इन चेतावनियों को अनसुना कर सरकारें यहां पर्यटन संबंधी व्यापार का सपना संजोती आई हैं। अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश में अनियंत्रित और अराजक पर्यटन को लेकर यहां तक कह डाला कि यदि यही हाल रहा तो हिमाचल देश के नक्शे से मिट जाएगा। अदालत ने वहां आई आपदाओं को प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानव निर्मित बताया।
सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी : सर्वोच्च अदालत 2013 में लगभग यही बातें उत्तराखंड के बारे में भी कह चुकी है। केदारनाथ की विनाशलीला के फौरन बाद 13 अगस्त 2013 को ‘अलकनंदा हाइड्रो पावर प्रॉजेक्ट बनाम अनुज जोशी व अन्य’ के केस में फैसला सुनाते हुए जस्टिस के. एस. राधाकृष्णन और जस्टिस दीपक मिश्रा ने उत्तराखंड के सूरत-ए-हाल के लिए जलविद्युत परियोजनाओं को जिम्मेदार ठहराया था जो कि अदालत के ही शब्दों मे ‘बगैर किसी ठोस अध्ययन के आनन-फानन मंजूर की जा रही हैं।’
आपदा से सबक नहीं : केदारनाथ की त्रासदी पर पूरा देश एकजुट दिखा था। केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, निजी घराने, समाचारपत्र समूह, सामाजिक संगठन समेत देश का हर तबका तन-मन-धन से सहायता को आगे आया था। तब सरकारें चाहतीं तो सहानुभूति के उस जज्बे को हिमालय और उसके पारिस्थितिक-तंत्र की चिंताओं से जोड़कर देख सकती थीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
नियोजन के केंद्र में संरक्षण : दीर्घकालिक चिंताओं न सिर्फ सरकारें पुराने ढर्रे पर लौट आईं, बल्कि सीमांत पहाड़ों तक में पूंजीपतियों की घुसपैठ के रास्ते खुलते चले गए। हादसों के बावजूद हर बार सरकारें हिमालय की इकॉलजी के मद्देनजर भू-वैज्ञानिकों की दीर्घकालिक चिंताओं से आंखें मूंद लेती हैं। वे ऊपरी हिमालय में होने वाली हलचलों और उनके खतरों के गहन वैज्ञानिक विश्लेषणों में नहीं जाना चाहतीं। हिमालय के संरक्षण को नियोजन का केंद्र बिंदु बनाए बिना बात नहीं बनने वाली। धराली इस कड़ी में एक और नसीहत है।
लकड़ी के घर : आज से कई साल पहले जब मैं धराली गया था, तो गंगोत्री जाती सड़क के निचले छोर पर गिनती की दुकानें थीं और ऊपरी छोर पर बसा था, हरे-भरे खेतों से घिरा लकड़ी और पत्थर के खूबसूरत स्थापत्य वाले मकानों का यह गांव। तब धराली और आसपास के ऊंचाई वाले गांव सर्दियों में नीचे घाटी में बने अपने शीतकालीन बसेरों (बगडों) में शिफ्ट हो जाते थे। उन्हें इन बसेरों तक पहुंचाने के लिए उत्तरकाशी से आने वाली बस सिर्फ धराली तक का ही फेरा लगाती थी। यात्रा सीजन में हुई कमाई, कृषि उत्पाद और माल-असबाब के साथ गांवों के दर्जनों परिवार नीचे घाटियों में चले आते थे। वहीं हस्तशिल्प का उनका छिटपुट कारोबार और बच्चों का स्कूल हुआ करता था।
चलन बदला : आज सारा परिदृश्य बदल चुका है। मौसमी बदलाव के कारण ‘बगड़ों’ में जाने का चलन नहीं रहा। अन्न उपजाने वाले खेत कंक्रीट के बहुमंजिला होटलों और महंगे होम-स्टे में बदल चुके हैं। धराली एक टूरिस्ट डेस्टिनेशन बन चुका है और यहां होटलिंग से आजीविका चलाने वाली एक ठीक-ठाक आबादी बस चुकी है। सीजन में यहां 300 से लेकर 400 तक लोग हरदम बने रहते हैं। पास में ही हर्सिल और मुखबा गांव हैं। मुखबा गंगोत्री धाम का शीतकालीन प्रवास है।
खीर गदेरे का अतिक्रमण : धराली के फैलाव और बसावट में जो सबसे बड़ी भूल लगातार होती रही, वह है इसके पास बहने वाले खीर गदेरे (छोटी नदी) का अतिक्रमण। इसके इर्दगिर्द पहले खेत थे, अब बहुमंजिला होटल/मकान हैं। उत्तराखंड में चप्पे-चप्पे पर नदियों और गदेरों के किनारे बसावट में नियम-कायदों का कोई मतलब नहीं रह गया है। सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न जनहित याचिकाओं में समय-समय पर गाइडलाइन जरूर दी है, मगर इन्हें ताक पर रखकर अनाप-शनाप निर्माण जैसे पहाड़ों में रिवाज हो चला है।
मौसमी बदलावों से बेपरवाह : मौसमी बदलावों के कारण ऊपरी हिमालय में ग्लेशियरों के गलन की बढ़ती गति और भूगर्भीय हलचलें बड़े पैमाने पर मलबा जुटा रही हैं। वहां बारिश और हिमस्खलन से अस्थायी झीलें बन रही हैं। बादल फटने और अतिवृष्टि जैसे प्रकोपों के दौरान मौका पाते ही सारा मलबा बाढ़ और भूस्खलन को साथ लेकर कई गुना ताकत से बहकर नीचे तबाही मचा डालता है। पुराने समय में लोगों को प्रकृति के साथ रहने और उसका मिजाज समझने का गहरा सलीका आता था लेकिन अब खासकर पहाड़ों में पर्यटन के बढ़ते रुझान ने नए तरह के दबाव पैदा किए हैं।
बारूद का ढेर : भू-गर्भशास्त्री धराली को पहले से बारूद का ढेर बताते रहे हैं, लेकिन इन चेतावनियों को अनसुना कर सरकारें यहां पर्यटन संबंधी व्यापार का सपना संजोती आई हैं। अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश में अनियंत्रित और अराजक पर्यटन को लेकर यहां तक कह डाला कि यदि यही हाल रहा तो हिमाचल देश के नक्शे से मिट जाएगा। अदालत ने वहां आई आपदाओं को प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानव निर्मित बताया।
सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी : सर्वोच्च अदालत 2013 में लगभग यही बातें उत्तराखंड के बारे में भी कह चुकी है। केदारनाथ की विनाशलीला के फौरन बाद 13 अगस्त 2013 को ‘अलकनंदा हाइड्रो पावर प्रॉजेक्ट बनाम अनुज जोशी व अन्य’ के केस में फैसला सुनाते हुए जस्टिस के. एस. राधाकृष्णन और जस्टिस दीपक मिश्रा ने उत्तराखंड के सूरत-ए-हाल के लिए जलविद्युत परियोजनाओं को जिम्मेदार ठहराया था जो कि अदालत के ही शब्दों मे ‘बगैर किसी ठोस अध्ययन के आनन-फानन मंजूर की जा रही हैं।’
आपदा से सबक नहीं : केदारनाथ की त्रासदी पर पूरा देश एकजुट दिखा था। केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, निजी घराने, समाचारपत्र समूह, सामाजिक संगठन समेत देश का हर तबका तन-मन-धन से सहायता को आगे आया था। तब सरकारें चाहतीं तो सहानुभूति के उस जज्बे को हिमालय और उसके पारिस्थितिक-तंत्र की चिंताओं से जोड़कर देख सकती थीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
नियोजन के केंद्र में संरक्षण : दीर्घकालिक चिंताओं न सिर्फ सरकारें पुराने ढर्रे पर लौट आईं, बल्कि सीमांत पहाड़ों तक में पूंजीपतियों की घुसपैठ के रास्ते खुलते चले गए। हादसों के बावजूद हर बार सरकारें हिमालय की इकॉलजी के मद्देनजर भू-वैज्ञानिकों की दीर्घकालिक चिंताओं से आंखें मूंद लेती हैं। वे ऊपरी हिमालय में होने वाली हलचलों और उनके खतरों के गहन वैज्ञानिक विश्लेषणों में नहीं जाना चाहतीं। हिमालय के संरक्षण को नियोजन का केंद्र बिंदु बनाए बिना बात नहीं बनने वाली। धराली इस कड़ी में एक और नसीहत है।
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