विवेक वाधवा, नई दिल्ली: लंबे समय से अमेरिका की ताकत का राज इस तथ्य में निहित रहा है कि दुनिया की सबसे शानदार प्रतिभाएं उसकी ओर खिंचती चली जाती हैं और वहां उन्हें न केवल आर्थिक संसाधन उपलब्ध होते हैं विवेक वाधवा बल्कि साहसी रिसर्च इंस्टिट्यूशन का साथ भी मिलता है। मगर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कदम-दर-कदम इस व्यवस्था को खत्म किए जा रहे हैं। अमेरिका के लिए यह इनोवेशन के सबसे सशक्त इंजन के धीरे-धीरे बंद पड़ते जाने जैसा है, लेकिन भारत के लिए यह एक टर्निंग पॉइंट साबित हो सकता है।
क्या है संदेश: हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के इंटरनेशनल स्टूडेंट्स के एनरोलमेंट पर रोक लगाई गई है। फेडरल रिसर्च फंडिंग के 2.7 बिलियन डॉलर से ऊपर की रकम फ्रीज कर दी गई है। MIT को ग्रेजुएट एडमिशन में कटौती और रिसर्च स्टाफ की छंटनी करनी पड़ी है। कैंसर रिसर्च, क्लामेट साइंस और क्वांटम कंप्यूटिंग जैसे क्षेत्रों से जुड़े प्रॉजेक्ट या तो बंद किए जा चुके हैं या बाधित किए जा रहे हैं। हालांकि एक फेडरल जज ने हावर्ड के खिलाफ उठाए गए प्रशासन के कदमों पर तात्कालिक रूप से रोक लगाई है, लेकिन इनका जो असर होना था, वह काफी हद तक हो चुका है। इंटरनेशनल स्टूडेंट्स और रिसर्चरों की बिरादरी को साफ संदेश जा चुका है कि अमेरिका में अब उनका स्वागत नहीं होने वाला।
इनोवेशन इकॉनमी की जड़ें: नतीजा यह कि अमेरिका में इंटरनेशनल स्टूडेंट्स के एनरोलमेंट में भारी गिरावट आई है जो निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद है। ध्यान रहे, यूनिवर्सिटी साइंस में सार्वजनिक निवेश ने वहां न केवल चिकित्सा के क्षेत्र में जादू किया है और डिजिटल क्रांति को संभव बनाया है बल्कि एक पूरी इंडस्ट्री ही खड़ी कर दी है। नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ ( NIH) और नैशनल साइंस फाउंडेशन (NSF) में निवेश ने बायोटेक, क्लीनटेक और नैनोटेक के फलने-फूलने में मदद की। डिफेंस रिसर्च एंड डिवेलपमेंट में DARP के अनुदानों ने हमें GPS और शुरुआती इंटरनेट दिया। देखा जाए तो ये अमेरिकी इनोवेशन इकॉनमी की जड़ें हैं। इन पर प्रहार करना वैसा ही है जैसे किसी बहुमंजिला इमारत के निर्माण के बीच में ही उसके नींव को तोड़ने लग जाना।
प्रवासियों का कमाल: सिलिकॉन वैली स्टार्टअप्स में आधे से ज्यादा ऐसे हैं, जिनका कम से कम एक फाउंडर प्रवासी है। इनमें से एक तिहाई फाउंडर भारतीय हैं। ड्यूक हार्वर्ड और यूसी बर्कली पर मेरी रिसर्च के मुताविक भारतीय प्रवासी जितने सिलिकॉन वैली स्टार्टअप के फाउंडर हैं, ब्रिटेन, चीन और ताइवान के प्रवासी मिलकर भी उस संख्या तक नहीं पहुंचते। इन कंपनियों ने सिर्फ धन नहीं पैदा किया है, पूरी की पूरी इंडस्ट्री खड़ी की है। यह पाइपलाइन बंद हो रही है।
आर्थिक पहलू: इसका आर्थिक बोझ भी बड़ा भारी है। इंटरनेशनल स्टूडेंट्स अमेरिका की इकॉनमी में हर साल 40 बिलियन डॉलर का योगदान करते हैं। वे ट्यूशन फी भरते हैं, घर किराये पर लेते हैं, खाना खरीदते हैं और उनमें से बहुतेरे कंपनी लॉन्च करने की राह पर आगे बढ़ते हैं। रिसर्च फंडिंग से अमेरिका के हर राज्य में सैकड़ों-हजारों नौकरियां बनती हैं और भविष्य की इंडस्ट्री को सहारा मिलता है।
रणनीतिक पहलू: रणनीतिक लागत तो और भी ज्यादा है। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस, बायोटेक और क्लीन एनर्जी के क्षेत्रों में अमेरिका का दबदबा ग्लोबल टैलंट को आकर्षित करने की उसकी क्षमता पर निर्भर करता है। इस व्यवस्था को कमजोर करने का मतलब सिर्फ यूनिवर्सिटियों की कमजोरी नहीं है। इससे ग्लोबल इकॉनमी में अमेरिका की स्थिति खतरे में पड़ती है।
भारत के लिए अवसर: इसके उलट भारत ग्लोबल टैलेंट को आकर्षित करने और टिकाए रखने के मामले में आगे बढ़ता दिख रहा है। इसके रिसर्च इंस्टिट्यूशंस विश्व स्तरीय क्षमता प्रदर्शित कर रहे हैं। भारत ने सस्ता वैक्सीन तैयार किया और नासा के बजट के मुकाबले नाम मात्र के खर्च में सफलतापूर्वक स्पेस मिशन संचालित कर रहा है। इसके पास अपना फलता-फूलता स्टार्टअप इकोसिस्टम है, वैश्विक पूंजी तक पहुंच है और एक ऐसी खूबी है जिसका चीन में घोर अभाव है - खुलेपन और बहस को बढ़ावा देने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था।
जरूरी कदम: भारत अभी भी इस स्थिति में नहीं है कि ग्लोबल रिसर्च सुपरपावर के रूप में अमेरिका की जगह लेसके। लेकिन यह इस स्थिति में जरूर है कि अमेरिका से विमुख हो रहे टैलेंट और एनर्जी का फायदा उठा सके। यह बात अलग है कि इस अवसर का फायदा उठाने के लिए उसे बहुत कुछ करना होगा। भारत को रिसर्च इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश करना होगा, रेग्युलेटरी व्यवस्था बेहतर बनानी होगी और सरकार और निजी क्षेत्र के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करना होगा। यही नहीं विदेशों में बसे भारतीय मूल के वैज्ञानिकों और विदेशी रिसर्चरों के आने की राह भी तैयार करनी होगी। सबसे बड़ी बात यह कि इसे रिसर्च को राष्ट्रीय प्राथमिकता में लाना होगा। ट्रंप भारत को फिर से महान बनने में मददगार हो सकते हैं।
(लेखक वायोनिक्स बायो साइंस के फाउंडर हैं)
क्या है संदेश: हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के इंटरनेशनल स्टूडेंट्स के एनरोलमेंट पर रोक लगाई गई है। फेडरल रिसर्च फंडिंग के 2.7 बिलियन डॉलर से ऊपर की रकम फ्रीज कर दी गई है। MIT को ग्रेजुएट एडमिशन में कटौती और रिसर्च स्टाफ की छंटनी करनी पड़ी है। कैंसर रिसर्च, क्लामेट साइंस और क्वांटम कंप्यूटिंग जैसे क्षेत्रों से जुड़े प्रॉजेक्ट या तो बंद किए जा चुके हैं या बाधित किए जा रहे हैं। हालांकि एक फेडरल जज ने हावर्ड के खिलाफ उठाए गए प्रशासन के कदमों पर तात्कालिक रूप से रोक लगाई है, लेकिन इनका जो असर होना था, वह काफी हद तक हो चुका है। इंटरनेशनल स्टूडेंट्स और रिसर्चरों की बिरादरी को साफ संदेश जा चुका है कि अमेरिका में अब उनका स्वागत नहीं होने वाला।
इनोवेशन इकॉनमी की जड़ें: नतीजा यह कि अमेरिका में इंटरनेशनल स्टूडेंट्स के एनरोलमेंट में भारी गिरावट आई है जो निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद है। ध्यान रहे, यूनिवर्सिटी साइंस में सार्वजनिक निवेश ने वहां न केवल चिकित्सा के क्षेत्र में जादू किया है और डिजिटल क्रांति को संभव बनाया है बल्कि एक पूरी इंडस्ट्री ही खड़ी कर दी है। नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ ( NIH) और नैशनल साइंस फाउंडेशन (NSF) में निवेश ने बायोटेक, क्लीनटेक और नैनोटेक के फलने-फूलने में मदद की। डिफेंस रिसर्च एंड डिवेलपमेंट में DARP के अनुदानों ने हमें GPS और शुरुआती इंटरनेट दिया। देखा जाए तो ये अमेरिकी इनोवेशन इकॉनमी की जड़ें हैं। इन पर प्रहार करना वैसा ही है जैसे किसी बहुमंजिला इमारत के निर्माण के बीच में ही उसके नींव को तोड़ने लग जाना।
प्रवासियों का कमाल: सिलिकॉन वैली स्टार्टअप्स में आधे से ज्यादा ऐसे हैं, जिनका कम से कम एक फाउंडर प्रवासी है। इनमें से एक तिहाई फाउंडर भारतीय हैं। ड्यूक हार्वर्ड और यूसी बर्कली पर मेरी रिसर्च के मुताविक भारतीय प्रवासी जितने सिलिकॉन वैली स्टार्टअप के फाउंडर हैं, ब्रिटेन, चीन और ताइवान के प्रवासी मिलकर भी उस संख्या तक नहीं पहुंचते। इन कंपनियों ने सिर्फ धन नहीं पैदा किया है, पूरी की पूरी इंडस्ट्री खड़ी की है। यह पाइपलाइन बंद हो रही है।
आर्थिक पहलू: इसका आर्थिक बोझ भी बड़ा भारी है। इंटरनेशनल स्टूडेंट्स अमेरिका की इकॉनमी में हर साल 40 बिलियन डॉलर का योगदान करते हैं। वे ट्यूशन फी भरते हैं, घर किराये पर लेते हैं, खाना खरीदते हैं और उनमें से बहुतेरे कंपनी लॉन्च करने की राह पर आगे बढ़ते हैं। रिसर्च फंडिंग से अमेरिका के हर राज्य में सैकड़ों-हजारों नौकरियां बनती हैं और भविष्य की इंडस्ट्री को सहारा मिलता है।
रणनीतिक पहलू: रणनीतिक लागत तो और भी ज्यादा है। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस, बायोटेक और क्लीन एनर्जी के क्षेत्रों में अमेरिका का दबदबा ग्लोबल टैलंट को आकर्षित करने की उसकी क्षमता पर निर्भर करता है। इस व्यवस्था को कमजोर करने का मतलब सिर्फ यूनिवर्सिटियों की कमजोरी नहीं है। इससे ग्लोबल इकॉनमी में अमेरिका की स्थिति खतरे में पड़ती है।
भारत के लिए अवसर: इसके उलट भारत ग्लोबल टैलेंट को आकर्षित करने और टिकाए रखने के मामले में आगे बढ़ता दिख रहा है। इसके रिसर्च इंस्टिट्यूशंस विश्व स्तरीय क्षमता प्रदर्शित कर रहे हैं। भारत ने सस्ता वैक्सीन तैयार किया और नासा के बजट के मुकाबले नाम मात्र के खर्च में सफलतापूर्वक स्पेस मिशन संचालित कर रहा है। इसके पास अपना फलता-फूलता स्टार्टअप इकोसिस्टम है, वैश्विक पूंजी तक पहुंच है और एक ऐसी खूबी है जिसका चीन में घोर अभाव है - खुलेपन और बहस को बढ़ावा देने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था।
जरूरी कदम: भारत अभी भी इस स्थिति में नहीं है कि ग्लोबल रिसर्च सुपरपावर के रूप में अमेरिका की जगह लेसके। लेकिन यह इस स्थिति में जरूर है कि अमेरिका से विमुख हो रहे टैलेंट और एनर्जी का फायदा उठा सके। यह बात अलग है कि इस अवसर का फायदा उठाने के लिए उसे बहुत कुछ करना होगा। भारत को रिसर्च इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश करना होगा, रेग्युलेटरी व्यवस्था बेहतर बनानी होगी और सरकार और निजी क्षेत्र के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करना होगा। यही नहीं विदेशों में बसे भारतीय मूल के वैज्ञानिकों और विदेशी रिसर्चरों के आने की राह भी तैयार करनी होगी। सबसे बड़ी बात यह कि इसे रिसर्च को राष्ट्रीय प्राथमिकता में लाना होगा। ट्रंप भारत को फिर से महान बनने में मददगार हो सकते हैं।
(लेखक वायोनिक्स बायो साइंस के फाउंडर हैं)
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