जब तक आप यह आलेख पढ़ रहे होंगे, संघ (परिवार) से किसी और ने भी सुझाव दे दिया होगा कि संविधान की प्रस्तावना से ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेक्युलर’ शब्दों को हटाने पर विचार होना चाहिए। संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने आपातकाल की 50वीं बरसी पर मांग की कि इन शब्दों को हटाया जाए। उनकी दलील थीः ये शब्द मूल संविधान में नहीं थे और इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान इन्हें जोड़ा। इस तरह की मांग के गहरे अर्थ को समझें- ये बेकार के मूल्य हैं।
हमें इस मामले में स्पष्ट होना चाहिए कि यह कोई संवैधानिक सुधार नहीं है, कि यह कोई अकादमिक तर्क-वितर्क नहीं। यह एक राजनीतिक प्रस्ताव है- एक अलग भारत की परिकल्पना जिसमें ‘सेक्युलर’ या ‘सोशलिस्ट’ शब्दों के लिए कोई जगह नहीं। यह डॉ. आंबेडकर के समावेशी गणराज्य की परिकल्पना की जगह संकीर्ण हिन्दू-प्रथम और बाजार-संचालित व्यवस्था को स्थापित करने वाली है। सुधार के बाने में यह परिकल्पना दरअसल प्रतिगामी है।
दो दृष्टि, दो भारत
संविधान में जिस भारत की कल्पना की गई है, वह बहुलवादी, समावेशी और लोकतांत्रिक है। वह धर्मनिरपेक्ष है - इसलिए नहीं कि यह धर्म को खारिज करता है, बल्कि इसलिए कि यह सभी धर्मों के लिए समान सम्मान के विचार को कायम रखता है। यह समाजवादी है- इसलिए नहीं कि यह उद्यम को खत्म करता है, बल्कि इसलिए कि यह सभी के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का आश्वासन देता है।
संघ द्वारा प्रस्तावित मॉडल भावना में हिन्दू राष्ट्र और व्यवहार में ‘कॉर्पोरेट उद्यम’ है। इसके केन्द्र में धर्म है- व्यक्तिगत आस्था से जुड़े विषय के रूप में नहीं, बल्कि एक राजनीतिक औजार के रूप में। बाजार न केवल धन बल्कि मूल्य भी तय करते हैं। भारत के असमान समाज में, अल्पसंख्यकों को अपनी जगह पता होनी चाहिए और गरीबों को अपनी सीमाएं।
यह नया भारत किसी नई संवैधानिक दृष्टि का परिणाम नहीं। यह उन लोगों का पुराना सपना है जिन्होंने 1950 में संविधान का विरोध किया, जिन्होंने 1947 में झंडे को सलामी नहीं दी और जिन्होंने लंबे समय तक जातियों, समुदायों और नागरिकों के बीच समानता के विचार का मखौल उड़ाया।
यह सच है कि 1976 में 42वें संशोधन के जरिये प्रस्तावना में ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोड़े गए थे। लेकिन यह तर्क देना गलत है कि ये विचार पहले से संविधान में शामिल नहीं थे। अनुच्छेद 14 समानता की गारंटी देता है। अनुच्छेद 15 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को रोकता है। अनुच्छेद 25 धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। अनुच्छेद 27 और 28 धर्म को सार्वजनिक शिक्षा और कराधान से बाहर रखते हैं। अनुच्छेद 29 और 30 संस्कृति और शिक्षा के मामले में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करते हैं।
ये अनायास नहीं; संविधान की बुनियाद हैं। केशवानंद भारती (1973) केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है। एस.आर. बोम्मई (1994) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि भारतीय राज्य एक धर्म को दूसरे धर्म पर बढ़ावा नहीं दे सकता। केशवानंद भारती का फैसला 42वें संशोधन से पहले आया था और बोम्मई मामला बाद में। दोनों में एक ही स्थिति को दोहराया गया। इसलिए ये बाध्यकारी कानून हैं,स्थापित नैतिकता हैं।
ऐसे ही, भारतीय संदर्भ में ‘समाजवाद’ कल्याणकारी राज्य के विचार को दिखाता है। अनुच्छेद 39 (आम भलाई के लिए भौतिक संसाधनों का वितरण) और अनुच्छेद 43 (जीविका मजदूरी) जैसे निर्देशक सिद्धांत इस दृष्टिकोण को मूर्त रूप देते हैं। भारतीय मॉडल कभी भी कट्टर मुक्त-बाजार का हामी नहीं था। यह संवैधानिक लोकतंत्र के माध्यम से सामाजिक न्याय का मॉडल था और ऐसा ही बनने की कोशिश करता है। हालांकि पिछले दशक में असमानता तेजी से बढ़ी और यह अभूतपूर्व स्तर पर जा पहुंची। स्थिति यह है कि ब्रिटिश राज के दौरान भी ऐसी असमानता नहीं देखी गई।
अभी ही यह हमला क्यों?
इन शब्दों को हटाए जाने की मांग अचानक नहीं हुई- यह एक लंबी वैचारिक परियोजना की परिणति है। कुछ ताकतें संविधान सभा के समय से ही आधुनिक भारत की दृष्टि से असहज रही हैं। वे ताकतें जो संविधान की तुलना में मनुस्मृति को प्राथमिकता देती हैं; जो समानता में नहीं, बल्कि ऊंच-नीच में यकीन करती हैं; जो वर्तमान सत्ता की राजनीति को छिपाने के लिए प्राचीन ‘सभ्यतागत मूल्यों’ की बात करती हैं। वे कभी इस विचार को पूरी तरह हजम नहीं कर सकीं कि एक दलित, एक मुस्लिम, एक आदिवासी, एक महिला या एक गरीब किसान का भारतीय गणराज्य पर उतना ही अधिकार हो सकता है जितना किसी और का। लेकिन अब, चुनावी बहुमत और मौजूदा राजनीतिक बहाव से उत्साहित होकर वे उस विचारधारा को कानूनी जामा पहनाना चाहते हैं।
हालांकि वे एक बात भूल जाते हैं: संविधान केवल संसद का नहीं है। यह लोगों का है और लोगों ने हिन्दू राष्ट्र नहीं चुना। उन्होंने भाईचारा चुना। उन्होंने बहुसंख्यकवाद नहीं, समानता चुनी। उन्होंने ढर्रे पर चलना नहीं चुना, उन्होंने एक ऐसा राज्य चुना जो कमजोरों की रक्षा करता हो।
सावधानी और उम्मीद
जो लोग प्रस्तावना पर हमला बोल रहे हैं, उन्हें याद रखना चाहिए: प्रस्तावना सजावटी नहीं- यह एक प्रण है। इसके शब्दों को मिटाना इसकी आत्मा पर हमला करना है। अपने अस्थायी बहुमत की मौजूदा स्थिति में जो आपको पसंद है उसे बनाए रखने और जो नापसंद है, उसे निकाल बाहर फेंकने की ओर न बढ़ें। गणतंत्र के रक्षकों के लिए यह समय लक्ष्मण रेखा खींचने का है। हमें साफ शब्दों में कहना चाहिए: यह संविधान हमारा है- हमारी विरासत, हमारा हथियार, हमारा कर्तव्य। हम उन लोगों को इसमें फेरबदल की इजाजत नहीं देंगे जिन्होंने इसके पहले मसौदे को कभी मंजूर नहीं किया। हम उन लोगों के सामने नहीं झुकेंगे जो इसके मूल्यों के लिए कभी खड़े नहीं हुए।
भारत की सबसे बड़ी ताकत इसकी विविधता है और इसका सबसे स्पष्ट उद्बोधन इसकी प्रस्तावना में है: ‘हम, भारत के लोग... अपने सभी नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सुनिश्चित करने के लिए…’। उन शब्दों को बने रहने दें। उन मूल्यों को जीवित रहने दें। इस गणतंत्र को कायम रहने दें।
(संजय हेगड़े सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।)You may also like
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