बीजेपी को चूंकि इस सदी का सबसे बड़ा ड्रामेबाज उपलब्ध है तो उसके लिए हर घटना, हर प्रसंग महज़ एक ड्रामा है। आपातकाल के पचास वर्ष पूरे होने का दिन, 25 जून भी एक ड्रामाई दिन था। छप्पन इंची जी को राहुल गांधी से बेहद खतरा महसूस होता है, इसलिए ड्रामा और ड्रामा करना जरूरी था वरना रास्ता तो छप्पन जी का आपातकाल से भी बहुत अधिक खतरनाक है और 11 साल से मुसलसल चला आ रहा है।
तो 25 जून को छप्पन इंची जी एकदम से चोला बदलकर लोकतांत्रिक हो गए थे। उन्हें कुछ भी होने और बनने में समय नहीं लगता। जैसे दिन में वह छह ड्रेस बदलते हैं, उसी तरह एक दिन में वह बारह तरह की बात कहने में उस्तादों के उस्ताद हैं। विचार भी उनके लिए कुर्ता-पजामा और जैकेट हैं।
तो उस दिन कई काम किए गए। कैबिनेट की बैठक इसलिए हुई कि आपातकाल विरोधी प्रस्ताव पारित करना है। लोकतंत्र और संविधान की दुहाइयां देनी है। इसे 'संविधान हत्या दिवस' के रूप में मनाकर अपने को संविधान के रक्षक के रूप में दिखाया। अमित शाह से लेकर छुटभइयों तक ने आपातकाल की उस दिन खूब मलामत की और मोदी जी ने आपातकाल पीड़ितों के परिवारजनों से अपने अनुभव साझा करने को कहा। और इस तरह यह ड्रामा शाम से पहले खत्म हुआ।
मोदियों और शाहों को अगर उस दिन आपातकाल की बहुत ही याद आ रही थी तो उन्हें यह भी स्मरण होगा कि जिस संघ पर इंदिरा गांधी ने प्रतिबंध लगाया था, उसी के प्रमुख बालासाहेब देवरस उस दौरान प्रधानमंत्री जी की चिरौरियां करते घूम रहे थे। चिट्ठियों पर चिट्ठियां लिख रहे थे। श्रीमती गांधी ही नहीं संजय गांधी से भी मिलने के लिए छटपटा रहे थे। यहां तक कहा कि हमारा कोई संबंध जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से नहीं है। बीस सूत्री कार्यक्रम का समर्थन किया था। नसबंदी तक को अपना समर्थन दिया था। हार थककर देवरस जी ने विनोबा भावे से भी चिरौरी की थी कि इंदिरा जी आपसे मिलने पवनार आश्रम आ रही हैं तो जरा संघ के बारे में उनके भ्रम दूर कर दीजिएगा।
सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए रायबरेली से इंदिरा गांधी के चुनाव को वैध ठहराया, तब भी संघ प्रमुख ने इसकी ताईद की। आपातकाल के बाद 1975 में स्वतंत्रता दिवस पर इंदिरा गांधी ने लालकिले से जो राष्ट्र को संबोधन किया, उसे भी उन्होंने संतुलित और समयानुकूल बताया था। मगर कोई तरकीब काम नहीं आई। सब की सब फेल हो गई क्योंकि वह अपने पिता की तरह संघ का चरित्र खूब जानती थीं। तो आपातकाल के विरोध में बीजेपी की मातृसंस्था का यह महान योगदान था, जिस पर मोदी जी को गर्व है और उचित ही गर्व है और होना भी चाहिए!
और भी सुनिए इनकी पार्टी के एक बड़े नेता तो आपातकाल में बीमारी के बहाने अस्पताल में आराम फरमाते रहे। इनके अधिकतर कार्यकर्ता भी एक-दो महीने में माफी मांगकर छूट गए और अब अनेक राज्यों में दस से बीस हजार तक पेंशन पा रहे हैं। इनके नेता जरूर जेल में रहे मगर आराम से राजनीतिक कैदी की तरह रहे। मोदी जी से उम्र में छोटे मगर बाद में उनके परम मित्र रहे अरुण जेटली जी और उनके वरिष्ठ मंत्री राजनाथ सिंह भी तब जेल गए थे, मगर मोदी जी कभी नहीं गए। दूसरों को भिजवाते हैं, मगर खुद नहीं गए!
मगर आज बताया जा रहा है कि आपातकाल से लड़ने वाला असली शूरवीर अगर तब कोई था तो मोदी जी ही थे! मोदी जी के बायोडाटा में यह कमी रह गई थी, वह भी अब पूरी हो गई है। वैसे तो वह बीए-एम ए भी हैं मगर किस तरह हैं, सब जानते हैं! किसी दिन अगर उनके बायोडाटा में यह भी शामिल हो जाए कि उन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी थी तो भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि वह नान बायोलॉजिकल हैं! जो नान बायोलॉजिकल राम जी को ऊंगली पकड़कर अयोध्या के मंदिर में ले जा सकता है, वह कभी भी, कहीं भी, कुछ भी कर सकता है!
छप्पन इंची जी के आपातकाल की कथित संघर्ष गाथा पर एक पूरी किताब अंग्रेजी में आ गई है, जिसका नाम है- द इमर्जेंसी डायरीज़- ईयर्स दैट फोर्ज्ड लीडर! मतलब आपातकाल ने ही हमें मोदी जैसा महान नेता दिया। अभी तो पूरी बात सामने आई नहीं है मगर जब आएगी तो यह पुस्तक भी 'बाल नरेन्द्र ' साबित होगी। इसके अलावा कुछ हो भी नहीं सकती। जिस वीर बालक ने मगरमच्छों के बीच से नदी में पड़ी गेंद निकाल ली थी और जो मगरमच्छ के बच्चे को घर ले आया था, वह बच्चा आगे चलकर इससे भी अधिक वीर साबित हुआ ही होगा, यह स्पष्ट है। तभी तो वह वीर होते-होते प्रधानमंत्री के रूप में छप्पन इंच सीने की गति को प्राप्त हुआ!
यह किताब अंधभक्तों की अंधभक्ति में कितनी वृद्धि करेगी, यह तो नहीं मालूम मगर जिनकी आंखें हैं और खुली हैं, उन्हें अगले अनेक वर्षों के लिए मनोरंजन की नयी सामग्री उपलब्ध करवाएगी। अमित शाह ने जो थोड़ा-बहुत इस बारे में बताया है, वह यह है कि छप्पन इंची जी, तब तरह-तरह के भेस बदलकर आपातकाल के पीड़ितों के परिवारों की मदद किया करते थे। वह कभी साधु बन जाते थे, कभी सरदार जी, कभी अगरबत्ती विक्रेता, तो कभी हिप्पी!
जिसने प्रधानमंत्री बनकर भी अपने अलावा किसी की मदद नहीं की, वह आपातकाल में इतना बहादुर होने के साथ इतना परम जन हितैषी रहा होगा, इस पर तो आज के बच्चे भी मुश्किल से विश्वास करेंगे क्योंकि वे इस उम्र में हमारी-आपकी तरह भोंदू नहीं हैं। बहुत स्मार्ट हैं और ऐसे-ऐसे सवाल करते हैं कि अच्छों-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं। अच्छों-अच्छों में माननीय भी शामिल हैं।
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