रामानुज शर्मा
नई दिल्ली, 19 सितंबर (हि.स.)। आपातकाल में सरकार के जुल्म, ज्यादती, अत्याचार और बर्बरता के विरोध में अनगिनत लोग ऐसे थे, जिन्होंने
अपनी आवाज बुलंद की और महीनों जेल की अंधेरी कोठरी में रहे। इनमें से एक थे प्रदीप चंद कंसल, जिनकी कहानी हृदय विदारक है। कंसल के तो प्लास से नाखून तक खींच लिए गए थे। आपातकाल के दौरान मेरठ कॉलेज में स्नातक के 20 वर्षीय छात्र प्रदीप कंसल पर इतने अत्याचार किये गये कि बर्बरता भी पानी मांगने को विवश हो गई थी।
पूछताछ के बहाने पुलिस प्रदीप कंसल पर थर्ड डिग्री टार्चर की सारी सीमाएं लांघ गई। उनसे सिविल लाइन्स के लॉकअप में खूंखार अपराधी की तरह मारपीट की गई। पहले उनकी जूतों से पिटाई की गई। इसके बाद बेतों से पीट-पीट कर उनको लहुलूहान कर दिया गया, लेकिन रुह कंपाने वाला पुलिस टार्चर भी उन्हें डिगा नहीं पाया। उन पर मीसा (आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम) भी लगाया गया था।
वर्तमान में भारतीय लोकतंत्र रक्षक सेनानी समिति, मेरठ के अध्यक्ष प्रदीप कंसल ने बताया कि 27 जून 1976 को मेरठ का अंतिम सत्याग्रह था। उस दिन अरुण वशिष्ठ ने मेरठ कॉलेज में सत्याग्रह किया था। पुलिस उनको पकड़ कर ले जा रही थी तो वे जैसे-तैसे वहां से भाग आए, क्योंकि उन्हें पीरग्रान मोहल्ला स्थित गोपनीय कार्यालय से सत्याग्रह की सारी सामग्री हटानी थी। तमाम सामग्री हटाने के बाद वे रात को कैसरगंज में अजय मित्तल जी के कमरा नंबर जीरो में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक ज्योति स्वरूप जी के साथ रुके और योजना के मुताबिक उन्होंने इमरजेंसी के विरोध को नई धार देने के लिए गुदड़ी बाजार से पटाखों के दो-दो मीटर के पलीते खरीदे। उनकी पांच-छह लड़ियां बनाकर अपनी शर्ट के अंदर छिपाकर वे 29 जनवरी 1976 को मेरठ कॉलेज पहुंचे।
कंसल बताते हैं कि
उनका मकसद किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं था बल्कि सरकार को चेताना था। कॉलेज पहुंचने के बाद वे दीवार पर चढ़ गए और जोर-जोर से नारे लगाकर माहौल में उबाल पैदा कर दिया। इसके बाद वे पटाखे फोड़ने लगे। पटाखों की आवाज से कॉलेज के छात्र-प्रोफेसर अपनी-अपनी कक्षाओं से निकल कर बाहर मैदान में आने लगे। वह लगातार पटाखे फोड़ते जा रहे थे। तभी वहां पर दो पुलिसकर्मी आए और उन्हें रोकने लगे। इसको लेकर पुलिसकर्मियों से छात्रों की तीखी बहस हो गई और फिर गुस्साए छात्रों ने उन्हीं के डंडे से उनकी जोरदार पिटाई शुरू कर दी। यह देखकर कंसल ने छात्रों को रोकते हुए समझाया कि पुलिस से हमारी कोई दुश्मनी नहीं है। स्वयं पुलिसकर्मियों ने भी डीएसपी चंदोला के सामने इस बात की पुष्टि की थी।
इसके बाद डीएसपी चंदोला के नेतृत्व में छात्रों पर जबरदस्त लाठीचार्ज हुआ। छात्रों ने भी पुलिस पर पत्थरबाजी शुरू कर दी। प्रदीप कंसल को गिरफ्तार कर लालकुर्ती थाने ले जाया गया। गिरफ्तार घायल छात्रों में किसी का हाथ टूटा था, किसी का सिर फूटा था। यहां से उन्हें सिविल लाइंस थाने ले जाया गया। लॉकअप में कंसल से बहुत कड़ाई से पूछताछ हुई। पुलिसकर्मियों ने उन पर जो बर्बरता की, वह रूह कंपा देने वाली थी। वे बार-बार एक ही बात पूछ रहे थे कि किसके इशारे पर यह सब कर रहे हो। प्रदीप कंसल से नाम न उगलवा पाने पर पुलिस वालों ने प्लास से उनके पैर के अंगूठे के नाखून खींच लिए। फिर भी उन्होंने संघ के अपने पदाधिकारियों ज्योति जी, रामलाल जी और अजय मित्तल का नाम नहीं लिया।
इस जुल्म, ज्यादती और बर्बरता से वह मरणासन्न हो चुके थे। सिविल लाइंस थाने के प्रभारी ने लालकुर्ती थाने को फोन किया और उन्हें वहां से ले जाने के लिए कहा, लेकिन उनके शरीर में इतनी सूजन थी कि उन्हें कपड़े पहनाना भी मुश्किल हो रहा था। किसी तरह उन लोगों ने उन्हें शर्ट पहनायी और पैंट को बेल्ट से बांधकर कंबल में लपेट कर जीप में अन्य बंदियों के साथ बिठा दिया। अदालत में जज के सामने बाकी लोगों को तो पेश किया गया, लेकिन उनकी दयनीय स्थिति के चलते पुलिस वालों की हिम्मत नहीं हुई कि वे उन्हें जज के सामने पेश कर सकें, वह जीप में ही बैठे रहे।
इसके बाद उन्हें मेरठ जेल ले जाया गया जहां उन्हें स्ट्रेचर पर बैरक में ले जाया गया। वहां उन्हें एक बड़ी सी अंधेरी बैरक में अकेले रखा गया था। उन्हें किसी से मिलने की इजाजत नहीं थी।
यह जानकारी वहां पर भारत रक्षा अधिनियम (डीआईआर) के तहत जेल में बंद मेरठ के प्रसिद्ध वकील रामेश्वर दयाल जी को मिली तो वे उनसे मिलने आए। कंसल की दुर्दशा देख उनकी आंखों में आंसू आ गए। वे 17 दिन तक इसी अंधेरी बैरक में रहे। उसके बाद जब प्रोफेसर नरेंद्र सिंह को उनके बारे में पता चला तो वे भी उनकी बैरक में पहुंचे। उन्होंने वहां पर पीले कपड़े में बैरक की पहरेदारी कर रहे चौकीदार से कहा कि तुमने एक दिन मुझसे बीड़ी मांगी थी, लेकिन आज मैं तुम्हारे लिए सिगरेट लाया हूं, लो पियो और अपने साथी चौकीदार को भी सिगरेट पिला दो। जैसे ही चौकीदार सामने वाली बैरक में गया, बड़ी संख्या में बंद डीआईआर बंदी वहां आए और प्रदीप कंसल को चारपाई सहित उठाकर अपनी बैरक में ले गए।
इसको लेकर जेल प्रशासन व कैदियों के बीच घंटों रस्साकसी चली।
आखिरकार सारे अधिकारियों सहित पूरा अमला झक्क मार कर वहां से वापस लौट गया, फिर वह उनकी ही बैरक में रहे। कुछ दिन बाद जेल की एक अन्य बैरक में अपराधी लोकतंत्र बंदियों के साथ मारपीट करने लगे। इसमें रविंद्र सिंह व अरुण वशिष्ठ घायल हो गए। वह अपराधी चेयरमैन हृदय प्रकाश जी को मारने ही वाला था कि प्रदीप कंसल ने उसके मुंह पर जोरदार थप्पड़ मारा और एक लकड़ी से उसके सिर पर वार कर दिया। इससे वह दूर गिर गया और हृदय जी बच गए। इसके बाद उन्हें सबसे अलग ऊंची-ऊंची दीवार वाली बैरक में रखा गया। यहां भी उन्हें और अरुण जी को काफी प्रताड़ित किया गया। उन्हें किसी से भी मिलने की इजाजत नहीं थी। उन्होंने अपनी बीए की परीक्षा जेल की बैरक में रहकर दी। इस समय तक डीआईआर के बंदी छूटने लगे थे। उन्हें भी 12 फरवरी 1977 को छोड़ दिया गया। तब तक चुनाव की घोषणा हो चुकी थी और इमरजेंसी का दौर खत्म हो गया था।
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हिन्दुस्थान समाचार / रामानुज शर्मा
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