अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी शनिवार को उत्तर प्रदेश के देवबंद पहुंचे.
इससे पहले 10 अक्तूबर को मुत्तक़ी की भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ बैठक हुई थी. यह पहली बार है जब तालिबान सरकार के विदेश मंत्री ने भारत का दौरा किया है.
हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में आए तालिबान को चार साल हो चुके हैं लेकिन भारत ने अब तक उन्हें मान्यता नहीं दी है.
दारुल उलूम देवबंद में मुत्तक़ी ने नमाज़ पढ़ने के बाद लोगों से मुलाक़ात की. यहां पहुंचने पर उन्होंने इलाक़े के लोगों का शुक्रिया कहा और भारत-अफ़ग़ानिस्तान के रिश्तों पर भी टिप्पणी की.
मुत्तक़ी से जब पूछा गया कि उन्हें भविष्य में भारत और अफ़ग़ानिस्तान के रिश्ते कैसे दिखते हैं.
इस पर उन्होंने कहा, "बहुत अच्छा सफ़र है. दारुल उलूम ही नहीं बल्कि पूरे इलाक़े के लोग यहां आए हैं. मैं उनका शुक्रगुज़ार हूं कि उन्होंने मेरा इतना अच्छा इस्तक़बाल (स्वागत) किया, मेहमाननवाज़ी की. देवबंद के उलेमा, इलाके़ के लोगों के प्रति मैं शुक्रगुज़ार हूं. भारत और अफ़ग़ानिस्तान के रिश्ते मुझे बहुत उज्ज्वल नज़र आ रहे हैं."
मुलाक़ात से पहले जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रमुख मौलाना अरशद मदनी ने कहा कि आज़ादी के लिए भारत ने जो किया, उससे अफ़ग़ानिस्तान ने सीखा.
उन्होंने कहा, "जिस तरह हमारे पूर्वजों ने दुनिया की बड़ी हुकूमत, ब्रिटेन को यहां शिकस्त दी. इसी तरह इन्होंने (तालिबान) दुनिया की बड़ी ताक़तों- रूस और अमेरिका से लोहा लिया है और उनको धूल चटवाई है. यही वो ताक़त है जो इनको आज यहां हिंदुस्तान में देवबंद तक लेकर आई है."
मुत्तक़ी देवबंद क्यों गए?
दारुल उलूम उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले के देवबंद में मौजूद इस्लामी उच्च शिक्षा का केंद्र है.
तालिबान नेताओं के बीच दारुल उलूम देवबंद का काफ़ी सम्मान है. तालिबान के कई सीनियर कमांडरों और नेताओं ने पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह के दारुल उलूम हक्कानिया में शिक्षा ली है.
हक्कानिया की स्थापना भी देवबंद के दारुल उलूम की तर्ज़ पर हुई है.
मुत्तक़ी से जब पूछा गया कि वो देवबंद क्यों जा रहे हैं तो उनका कहना था, "देवबंद में जाकर लोग क्या करते हैं, मुलाक़ात करते हैं, नमाज़ पढ़ते हैं."
उन्होंने कहा, "देवबंद इस्लामी दुनिया का एक बड़ा केंद्र है और अफ़ग़ानिस्तान से इसका गहरा रिश्ता है. हमारे यहां से छात्र भारत में इंजीनियरिंग, साइंस वगैराह पढ़ने आते हैं, वैसे ही इस्लामी शिक्षा के लिए भी आते हैं."
दारुल उलूम देवबंद केमीडिया प्रभारी अशरफ़ उस्मानी ने बताया था, "मुत्तक़ी साहब आ रहे हैं. हम उनके लिए यहां इंतज़ाम कर रहे हैं, वो जब यहां पहुंचेंगे तो उन्हें दारुल उलूम देवबंद दिखाएंगे. हमारे यहां मेहमान आते रहते हैं. वो तो अभी हमारे देश के गेस्ट हैं, हम उसी तरह से उनका स्वागत करेंगे."

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देवबंद का नाम लेते ही सबसे पहले जो तस्वीर ज़ेहन में आती है या जो नाम दिमाग़ में आता है वो है इस्लामी संस्था दारुल उलूम.
देवबंद के दारुल उलूम की स्थापना 1866 में हुई थी. इस मदरसे की स्थापना अंग्रेज़ों के खिलाफ़ 1857 के ग़दर से जुड़ी है.
भारत की आज़ादी की पहली जंग समझी जाने वाली इस घटना को मुग़ल साम्राज्य के पतन से जोड़कर देखा जाता है. अंग्रेज़ सरकार ने इस घटना के बाद कई मुस्लिम संस्थाओं को बंद कर दिया था और सैकड़ों इस्लामिक विद्वानों को या तो फांसी पर लटका दिया था या सालों के लिए जेल भेज दिया था.
ज़िंदा बचे इस्लामिक विद्वानों ने एक साथ मिलकर इस मदरसे की 30 मई 1866 में स्थापना की थी.
ये वो लोग थे जो भारत को ईस्ट इंडिया की सरकार से मुक्ति दिलाना चाहते थे और साथ ही भारत में इस्लाम की पढ़ाई को ख़त्म होने से बचाना चाहते थे.
मदरसे की पहचान इस्लामी शिक्षा से हुई. आज दारुल उलूम की ओर से जारी फ़तवे और धार्मिक सलाह को भारत के अधिकतर मुसलमान मानते हैं.
मदरसे की स्थापना के समय देवबंद एक छोटा सा क़स्बा था. अब यहां की आबादी एक लाख से अधिक हो चुकी है. लेकिन उस समय यह कुछ हज़ार आबादी वाला एक छोटा सा शहर था.
यहां मौजूद मदरसा इस्लाम के सुन्नी विचारों का गढ़ है. सुन्नी इस्लाम के हनफ़ी विचार के मानने वाले लोग भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में भारी संख्या में आबाद हैं जिन्हें 'देओबंदी' कहा जाता है.

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दारुल उलूम हक्कानिया पाकिस्तान के पेशावर से लगभग 55 किलोमीटर दूर अकोरा खटक में स्थित है.
इस स्कूल की स्थापना 1947 में शेख अब्दुल हक़ ने की थी, जिन्होंने भारत के देवबंद स्थित दारुल उलूम मदरसे से शिक्षा प्राप्त की थी.
1866 में स्थापित इस मदरसे ने ही देवबंदी आंदोलन की शुरुआत की थी. सुन्नी इस्लाम के भीतर पुनरुत्थानवादी आंदोलन ने इस्लाम के मूल सिद्धांतों की ओर लौटने की वकालत की है.
भारत के विभाजन के बाद, देवबंदी आंदोलन के अनुयायी पूरे दक्षिण एशिया में फैल गए और उन्होंने मदरसे स्थापित किए, जिनमें इस्लाम का कठोर संस्करण पढ़ाया जाता था. ख़ासकर पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर, जहां अब्दुल हक़ ने दारुल उलूम हक्कानिया की स्थापना की.
यह स्कूल जल्द ही प्रसिद्ध धार्मिक शैक्षणिक संस्थानों में से एक बन गया और देवबंद विचारधारा का एक अहम शैक्षणिक केंद्र बन गया.
अब्दुल हक़ की मृत्यु के बाद, उनके बेटे समी उल हक़ ने 1988 में मदरसे की कमान संभाली.

वॉशिंगटन पोस्टकी एक रिपोर्ट के अनुसार, सोवियत संघ के अफ़ग़ानिस्तान से हटने के बाद भी, इस मदरसे ने तालिबान नेताओं के साथ अपने संबंध बनाए रखे, जिन्होंने 1990 के दशक के मध्य में काबुल पर कब्ज़ा कर लिया था.
रिपोर्ट में कहा गया है, "बाद में, 2001 में जब अमेरिका ने तालिबान सरकार को सत्ता से बेदख़ल करने में मदद की, तो इस मदरसे ने कई विद्रोही पैदा किए, जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान की अमेरिका समर्थित सरकार के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी."
इन्हीं वजहों से समी उल हक़ को 'तालिबान का जनक' कहा जाने लगा.
2018 में समी उल हक़ की हत्या के बाद, उनके बेटे हामिद उल हक़ ने मदरसे की कमान संभाली थी.
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