हाल के दिनों में सीमा पर हुई झड़पों के बाद पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच 48 घंटे के लिए युद्धविराम हुआ लेकिन हालात अब भी तनावपूर्ण हैं.
क़तर की मध्यस्थता में दोनों पक्षों के बीच बातचीत की चर्चा हो रही है, लेकिन कुछ लोग संघर्ष के बढ़ने की चिंता भी व्यक्त कर रहे हैं.
ऐसे में भारत की लंबी यात्रा पर आए अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी का एक बयान भी ध्यान खींच रहा है, जिसमें उन्होंने पाकिस्तान का नाम लिए बिना चेतावनी जारी की थी.
नई दिल्ली में अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी ने कहा था, "अफ़ग़ानों के साहस की परीक्षा मत लीजिए और उन्हें ज़्यादा तंग मत कीजिए. अगर आप ऐसा करना चाहते हैं, तो पहले ब्रिटेन से पूछिए, सोवियत संघ से पूछिए, अमेरिका और नेटो से पूछिए, ताकि वे आपको समझा सकें कि अफ़ग़ानिस्तान के साथ यह खेल ठीक नहीं है."
हाल के दिनों में अफ़ग़ान तालिबान के एक प्रवक्ता ने भी ऐसा ही दावा किया है.
बहुत से लोग यह प्रश्न पूछ रहे हैं: विश्व की महान शक्तियाँ और महाशक्तियाँ एक ऐसे देश में असफल होकर क्यों लौटीं, जिसके पास न तो कोई नियमित सेना है और न ही संसाधन और विश्व इस देश को 'साम्राज्यों के कब्रिस्तान' के रूप में क्यों जानता है?
'साम्राज्यों का कब्रिस्तान'
यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास और भूगोल में छिपा है.
19वीं सदी में दुनिया के सबसे शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य ने अपनी पूरी ताक़त से अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की.
लेकिन 1919 में ब्रिटेन को आख़िरकार अफ़ग़ानिस्तान छोड़ना पड़ा और अफ़ग़ानों को आज़ादी देनी पड़ी.
इसके बाद सोवियत संघ ने 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण किया. इसका उद्देश्य 1978 में तख़्तापलट के ज़रिए स्थापित कम्युनिस्ट सरकार के पतन को रोकना था.
लेकिन उन्हें यह समझने में दस साल लग गए कि वे युद्ध कभी नहीं जीत पाएंगे.
ब्रिटिश साम्राज्य और सोवियत संघ में कुछ समानताएँ हैं. दोनों साम्राज्य अपनी शक्ति के चरम पर थे जब उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण किया. लेकिन उस आक्रमण के बाद, दोनों साम्राज्य धीरे-धीरे बिखरने लगे.
2001 में अमेरिका के नेतृत्व में अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण के परिणामस्वरूप वर्षों तक चले युद्ध में लाखों लोग मारे गए.
आक्रमण के बीस साल बाद, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाने का फ़ैसला किया, जिससे अमेरिकी सैनिकों की वापसी और तालिबान की सत्ता में वापसी का रास्ता साफ़ हो गया.
यह एक विवादास्पद फ़ैसला था जिसकी दुनिया भर में व्यापक आलोचना हुई थी और राष्ट्रपति ट्रंप आज भी इस फ़ैसले के लिए पिछले अमेरिकी प्रशासन की आलोचना करते हैं. इस एक फ़ैसले की वजह से तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल पर तेज़ी से क़ब्ज़ा कर लिया था.
बाइडन ने अपने फ़ैसले का बचाव करते हुए कहा, "अमेरिकी नागरिकों को ऐसे युद्ध में नहीं मरना चाहिए जिसे लड़ने के लिए अफ़ग़ान स्वयं तैयार नहीं हैं."
अफ़ग़ानिस्तान की "साम्राज्यों के कब्रिस्तान" के रूप में प्रतिष्ठा को याद करते हुए, बाइडन ने कहा, "चाहे कितनी भी सैन्य शक्ति तैनात कर दी जाए, एक स्थिर, एकीकृत और सुरक्षित अफ़ग़ानिस्तान संभव नहीं है."
अफ़ग़ानिस्तान विश्व की सबसे शक्तिशाली सेनाओं के लिए कब्रगाह साबित हुआ है, जिन्होंने हाल की शताब्दियों में इसे नियंत्रित करने की कोशिश की है.
शुरू में इन आक्रमणकारी सेनाओं को कुछ सफलताएँ मिली होंगी, लेकिन अंत में उन्हें अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर भागना पड़ा.
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विश्लेषक डेविड एस्बी ने अफ़ग़ान इतिहास पर 'अफ़ग़ानिस्तान: ग्रेवयार्ड ऑफ़ एम्पायर्स' नामक पुस्तक लिखी है.
वे कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि अफ़ग़ान काफ़ी शक्तिशाली हैं. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में जो कुछ हुआ है, वह आक्रमणकारी ताक़तों की ग़लतियों के कारण हुआ है."
विश्लेषक एस्बी कहते हैं, "अगर आप निष्पक्ष होकर देखें तो अफ़ग़ानिस्तान एक कठिन जगह है. यह एक जटिल देश है, जिसका बुनियादी ढाँचा ख़राब है और वहाँ विकास भी बहुत ही सीमित हुआ है."
उन्होंने कहा, "किसी भी साम्राज्य ने, चाहे वह सोवियत संघ हो, ब्रिटेन हो या अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान के साथ लचीलापन नहीं दिखाया. वे अपनी राह पर चलना चाहते थे और उन्होंने ऐसा किया भी, लेकिन उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान की जटिलताओं को कभी नहीं समझा."
अक्सर कहा जाता है कि अफ़ग़ानिस्तान को हराना नामुमकिन है.
पर यह एक झूठ है. ईरानियों, मंगोलों और सिकंदर ने अफ़ग़ानिस्तान पर फ़तह हासिल की थी. हालांकि काबुल पर आक्रमण करने वाले पिछले तीन महान साम्राज्य अपनी कोशिशों में बुरी तरह विफल रहे हैं.
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19वीं शताब्दी में, मध्य एशिया पर नियंत्रण के लिए ब्रिटिश और रूसी साम्राज्यों के बीच लड़ाई में अफ़ग़ानिस्तान एक महत्वपूर्ण मंच था.
इसकी वजह से रूस और ब्रिटेन के बीच दशकों तक कूटनीतिक और राजनीतिक संघर्ष चला. इसमें अंत में ब्रिटेन विजयी हुआ. लेकिन ब्रिटेन को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी.
ब्रिटेन ने 1839 से 1919 के बीच तीन बार अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण किया और यह कहा जा सकता है कि ब्रिटेन तीनों बार असफल रहा.
1839 के प्रथम एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध में ब्रिटेन ने काबुल पर क़ब्ज़ा कर लिया क्योंकि उसका मानना था कि अगर उसने यह क़दम नहीं उठाया तो रूस काबुल पर क़ब्ज़ा कर लेगा.
लेकिन बहुत जल्द ब्रिटेन की ऐतिहासिक हार हुई. कुछ कबीलों ने दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश की सेना को बेहद साधारण हथियारों से ही तबाह कर दिया. तीन साल के हमले के बाद, आख़िरकार अफ़ग़ानिस्तान ने हमलावर सेना को भागने पर मजबूर कर दिया.
छह जनवरी 1842 को जलालाबाद के लिए ब्रिटिश शिविर छोड़ने वाले 16,000 सैनिकों में से केवल एक ब्रिटिश नागरिक ही जीवित वापस लौटा.
एस्बी बताते हैं कि इस 'युद्ध ने उपमहाद्वीप में ब्रिटिश विस्तारवादी नीति को कमज़ोर कर दिया और इस धारणा को भी नुकसान पहुँचाया कि ब्रिटिश कभी हार नहीं सकते.'
चार दशक बाद ब्रिटेन ने दोबारा प्रयास किया और इस बार उसे कुछ सफलता मिली.
1878 और 1880 के बीच हुए दूसरे एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध के बाद अफ़ग़ानिस्तान ब्रिटिश संरक्षित राज्य बन गया.
लेकिन 1919 में ब्रिटेन के चुने हुए अमीर ने खुद को ब्रिटेन से स्वतंत्र घोषित कर दिया. इसके बाद तीसरा एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध शुरू हो गया.
यह वह समय था जब एक ओर बोल्शेविक क्रांति ने रूसी ख़तरे को कम कर दिया था और दूसरी ओर प्रथम विश्व युद्ध ने ब्रिटिश सैन्य ख़र्च को काफ़ी बढ़ा दिया था. ऐसे में, अफ़ग़ानिस्तान में ब्रिटिश साम्राज्य की रुचि कम हो गई थी.
यही कारण है कि चार महीने के युद्ध के बाद ब्रिटेन ने अफ़ग़ानिस्तान को स्वतंत्र घोषित कर दिया. हालांकि ब्रिटेन आधिकारिक तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद नहीं था, लेकिन ऐसा माना जाता है कि उसने कई वर्षों तक वहाँ अपना प्रभाव बनाए रखा.
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1920 के दशक में अमीर अमानुल्लाह ख़ान ने अफ़ग़ानिस्तान में सुधार लाने का प्रयास किया.
इन सुधारों में महिलाओं के बुर्क़ा पहनने की प्रथा को ख़त्म करना भी शामिल था. इन सुधारवादी प्रयासों से कुछ जनजातियाँ और धार्मिक नेता नाराज़ हो गए, जिसके बाद देश में गृहयुद्ध छिड़ गया.
गृहयुद्ध के कारण अफ़ग़ानिस्तान दशकों तक अशांति की स्थिति में रहा और 1979 में सोवियत संघ ने अव्यवस्थित कम्युनिस्ट सरकार को सत्ता में बनाए रखने के लिए अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण कर दिया.
कई मुजाहिदीन संगठनों ने सोवियत संघ का विरोध किया और उसके ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया. इस युद्ध में मुजाहिदीन को अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, ईरान और सऊदी अरब से धन और हथियार मिले.
रूसियों ने उन क्षेत्रों और गाँवों पर ज़मीनी और हवाई हमले किए, जिनके बारे में उनका मानना था कि वे समस्या की जड़ हैं, जिससे स्थानीय लोगों को अपने घरों से भागने या मरने के लिए मजबूर होना पड़ा.
इस हमले में बहुत ख़ून-ख़राबा हुआ. इस युद्ध में लगभग 15 लाख लोग मारे गए और 50 लाख लोग शरणार्थी बन गए.
कुछ समय तक सोवियत संघ की सेना प्रमुख शहरों और कस्बों पर नियंत्रण करने में सक्षम रही, लेकिन मुजाहिदीन ग्रामीण इलाक़ों में सक्रिय रहे.
सोवियत सेना ने कई तरीक़े आज़माए, लेकिन गुरिल्ला सैनिक अक्सर ऐसे हमलों से बच निकलते थे. इस युद्ध में पूरा देश तबाह हो गया.
इस बीच, तत्कालीन सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव को एहसास हुआ कि रूसी अर्थव्यवस्था में सुधार करते हुए वे युद्ध जारी नहीं रख सकते, और उन्होंने 1988 में अपने सैनिकों को वापस बुलाने का फ़ैसला किया.
सोवियत संघ के लिए यह जंग बेहद महँगी और शर्मनाक थी. एस्बी कहते हैं कि यह सोवियत संघ की सबसे बड़ी ग़लतियों में से एक थी.
इसके बाद सोवियत संघ टूटने और विभाजित होने लगा.
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अफ़ग़ानिस्तान में ब्रिटेन और सोवियत संघ के असफल प्रयासों के बाद, अमेरिका ने 9/11 के हमलों के बाद अफ़ग़ानिस्तान में लोकतंत्र का समर्थन करने और अल-क़ायदा को ख़त्म करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण किया.
पिछले दो साम्राज्यों की तरह, संयुक्त राज्य अमेरिका भी शीघ्रता से काबुल पर विजय प्राप्त करने तथा तालिबान को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर करने में सक्षम रहा.
तीन साल बाद अफ़ग़ान सरकार बनी, लेकिन तालिबान के हमले जारी रहे. पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2009 में सैनिकों की संख्या बढ़ाकर तालिबान को पीछे धकेल दिया, लेकिन यह ज़्यादा दिन नहीं चला.
2001 में युद्ध शुरू होने के बाद से 2014 में सबसे अधिक रक्तपात हुआ. बाद में नेटो ने अपना मिशन पूरा कर लिया और ज़िम्मेदारी अफ़ग़ान सेना को सौंप दी.
इसके बाद तो तालिबान ने और अधिक क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर लिया. अगले वर्ष यानी 2015 में काबुल में संसद और हवाई अड्डे के पास हुए कई आत्मघाती विस्फोट हुए.
एस्बी के अनुसार, अमेरिकी हमले में कई चीज़ें ग़लत हुईं.
वे कहते हैं, "सैन्य और कूटनीतिक प्रयासों के बावजूद, कई समस्याओं में से एक यह थी कि अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय समुदाय पाकिस्तान को प्रॉक्सी वॉर छेड़ने से नहीं रोक सके. और यह अन्य हथियारों की तुलना में अधिक सफल साबित हुआ है."
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सोवियत संघ के युद्ध में अधिक रक्तपात हुआ, लेकिन अमेरिकी आक्रमण अधिक महँगा साबित हुआ. जहाँ सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध पर हर साल दो अरब डॉलर ख़र्च किए, वहीं अमेरिका ने 2010 और 2012 के बीच हर साल लगभग 100 अरब डॉलर ख़र्च किए.
काबुल में अमेरिका की हार की तुलना दक्षिण वियतनाम की घटनाओं से भी की गई है. अमेरिका में रिपब्लिकन सांसद स्टेफ़निक ने ट्वीट किया था: "यह जो बाइडन का सायगॉन है."
"अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर एक भयावह विफलता है जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकेगा."
अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद, अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े से मानवीय संकट पैदा हो गया, जिससे लाखों लोग विस्थापित हो गए.
एस्बी कहते हैं, "आने वाले दिनों में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि तालिबान सरकार को अंतरराष्ट्रीय समुदाय मान्यता देता है या नहीं. मुझे इस बारे में बहुत संदेह है."
और अगर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए तालिबान से निपटना असंभव हो जाता है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या कोई अन्य शक्ति, साम्राज्यों के कब्रिस्तान के रूप में जाने जाने वाले अफ़ग़ानिस्तान पर हमला करने का जोखिम उठाती है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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