सीपीआई (माओवादी) की ओर से कथित तौर पर दो दिनों में जारी दो विज्ञप्तियों और दो ऑडियो संदेशों में कहा गया है कि वह हथियार डालने और सरकार से संवाद के लिए तैयार है.
फ़िलहाल माओवादियों की इन कथित विज्ञप्तियों की प्रामाणिकता को लेकर संदेह भी जताया जा रहा है.
लेकिन माओवादी आंदोलन से जुड़े कई विश्लेषक मानते हैं कि मौजूदा समय में ये विज्ञप्तियां पार्टी की हो सकती हैं.
इन विज्ञप्तियों के मुताबिक पार्टी के केंद्रीय प्रवक्ता अभय ने प्रस्ताव रखा है कि सरकार एक महीने का युद्धविराम घोषित करे, ताकि संगठन जेलों में बंद अपने वरिष्ठ नेताओं से परामर्श कर वार्ता के लिए प्रतिनिधिमंडल तैयार कर सके.
बातचीत केंद्र के गृह मंत्री या उनके प्रतिनिधियों के साथ करने की बात कही गई है.
छत्तीसगढ़ राज्य के गृहमंत्री विजय शर्मा ने कहा है कि इन विज्ञप्तियों की सत्यता की जांच की जा रही है.
वहीं बस्तर के आईजी पुलिस सुंदरराज पी ने भी कहा कि इनकी प्रामाणिकता की जांच की जा रही है और इसकी विषय-वस्तु का सावधानीपूर्वक परीक्षण किया जा रहा है.
माओवादियों की इन कथित विज्ञप्तियों और ऑडियो के बाद कहा जा रहा है कि यह भाषा, नक्सलियों की उस परंपरागत भाषा से भिन्न है, जिसमें पिछले 58 सालों से भी अधिक समय से, बंदूक को ही मुक्ति का रास्ता बताया जाता रहा है.
ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह सचमुच माओवादियों की बदली हुई सोच की झलक है या संकट के दौर से गुजर रहे माओवादियों की रणनीतिक विवशता?
अब निर्णायक मोड़ पर लड़ाई
नक्सल आंदोलन को जानने-समझने वालों का कहना है कि भारत की आंतरिक सुरक्षा की सबसे लम्बी लड़ाई, अब निर्णायक मोड़ पर खड़ी है.
गोलियां उगलने वाली बंदूकें, आज संवाद की बात कर रही हैं तो उसके पीछे के कारण साफ हैं.
इन विज्ञप्तियों को अगर माओवादियों का संदेश माना जाए तो यह स्पष्ट होता है कि वे युद्धविराम और वार्ता को तैयार हैं.
यह पांच महीने पहले माओवादी प्रवक्ता अभय के बयान से अलग भी है.
पांच महीने पहले, 2 अप्रैल को माओवादी प्रवक्ता अभय ने ही अपने बयान में सुरक्षाबलों द्वारा छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडिशा, झारखंड, मध्यप्रदेश और तेलंगाना में चलाए जा रहे ऑपरेशन कगार समेत सभी सैन्य कार्रवाई रोकने और नए कैंप नहीं बनाने की शर्त पर शांति वार्ता की पेशकश की थी.
अभय ने सीज़ फ़ायर के दौरान सुरक्षाबलों को कैंपों तक ही सीमित रखने की शर्त रखी थी.
लेकिन इन पांच महीनों में अपने महासचिव समेत सैकड़ों कार्यकर्ताओं की जान गंवाने के बाद, सीपीआई माओवादी ने अब बिना किसी शर्त के बातचीत के लिए तैयार होने की पेशकश की है.
नक्सल मामलों के जानकार डॉक्टर पीवी रमना का मानना है कि हथियार डाले बिना सरकार माओवादियों से बातचीत नहीं करेगी.

वे बताते हैं, "शांति वार्ता का ऐसा ही प्रस्ताव इसी मार्च-अप्रैल में आया था और उस समय भी केंद्र सरकार ने माओवादियों को जवाब नहीं दिया था. मार्च के बाद से, सुरक्षाबलों के ऑपरेशन में बड़ी संख्या में माओवादी मारे जा चुके हैं. माओवादी संगठन के महासचिव तक मारे जा चुके हैं. कई सेंट्रल कमेटी के सदस्य मारे जा चुके हैं."
रमना कहते हैं, "माओवादी अब चारों तरफ़ से घिरे हुए हैं तो एक महीने की शांति वार्ता की पेशकश कर रहे हैं. लेकिन मुझे कोई कारण नहीं नज़र आता कि सरकार उनसे बात करेगी. बातचीत तो एक ही स्थिति में हो सकती है, जब वे पूरी तरह से हथियार डालने के लिए तैयार हों."
पीवी रमना ने बीबीसी हिंदी से कहा कि अगर माओवादी हथियार डालने के पक्ष में हों तो सरकार को उन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था में लौटने का अवसर देना चाहिए. लेकिन रमना, माओवादियों और सरकार के बीच बातचीत के परिणाम को लेकर भी आशंकित हैं.
वे कहते हैं कि माओवादियों का संगठन देश के कई राज्यों में है. ऐसे में केवल छत्तीसगढ़ सरकार से बातचीत करने से, इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता.
मुश्किल समय में माओवादी
मौजूदा हालात में माओवादी संगठन कठिन दौर से गुजर रहा है. माओवादी संगठनों से जुड़े लोगों की बातों पर भरोसा करें तो कभी 42 सदस्यीय केंद्रीय समिति अब घटकर लगभग 12 सदस्यों तक सिमट चुकी है.
महासचिव बसवराजू और मोडेम बालकृष्णा जैसे वरिष्ठ नेता हाल ही में मारे गए, जबकि केंद्रीय समिति की सदस्य सुजाता ने आत्मसमर्पण किया है.
यह घटनाएँ संगठन के भीतर गिरते मनोबल और बिखरते ढाँचे का संकेत देती हैं.
हालांकि अपने बयान में माओवादी प्रवक्ता ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि उनका संघर्ष केवल हथियार पर आधारित नहीं है.
उनका दावा है कि माओवादी आंदोलन ने समाज के विभिन्न हिस्सों, महिलाओं, मज़दूरों, दलितों, आदिवासियों को संगठित कर पहचान दिलाई है.
लेकिन सच तो यही है कि पिछले दो वर्षों में सुरक्षा बलों की कार्रवाइयों ने निश्चित रूप से माओवादियों को दबाव में ला दिया है.
दूसरा संकट ये है कि माओवादी केवल सुरक्षा बलों के दबाव से ही नहीं, बल्कि घटते जनसमर्थन से भी जूझ रहे हैं. यह पहली बार नहीं है जब वार्ता का प्रस्ताव सामने आया है.
फर्क यह है कि इस बार संगठन की स्थिति कहीं अधिक कमजोर है. साथ ही, आंतरिक मतभेद भी चुनौती बने हुए हैं. ऐसे में बहुत संभव है कि एक धड़ा वार्ता को विकल्प मान सकता है, जबकि दूसरा हिंसा पर अड़ा रह सकता है.
ऐसे में माओवादियों के ताज़ा प्रस्ताव को दो तरह से देखा जा सकता है. एक ओर यह उनके अस्तित्व को बचाने की रणनीति हो सकती है.
दूसरी ओर, यह सचमुच उस स्वीकारोक्ति का संकेत भी हो सकता है कि केवल बंदूक से जनता की समस्याएं हल नहीं की जा सकतीं.
वरिष्ठ पत्रकार प्रफुल्ल ठाकुर कहते हैं, "यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी कि यह पहल केवल अपने संगठनात्मक अस्तित्व को बचाने की रणनीति है या राजनीतिक प्रक्रिया में वास्तविक भागीदारी की इच्छा. फिर भी, यह बात तो साफ है कि ताज़ा रुख उनके पहले के रवैये से अलग है."
"पहली बार माओवादी नेतृत्व ने यह स्वीकार किया है कि वे राजनीतिक दलों और जनसंघर्षों से जुड़े संगठनों के साथ मिलकर जनता की समस्याओं पर साझा संघर्ष करना चाहते हैं. साथ ही, यह मान्यता कि आम लोगों की समस्याएँ केवल हथियारबंद संघर्ष से हल नहीं हो सकतीं, उनके वैचारिक ढाँचे में आई दरार और संभावित बदलाव की ओर भी संकेत करती है."
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हालांकि सरकार और माओवादियों के बीच बातचीत की यह कोई पहली कोशिश या पहला प्रस्ताव नहीं है.
पहली बार 2002 में आंध्र प्रदेश में इस बातचीत की शुरुआत हुई थी. यह बातचीत असल में, सरकार और माओवादियों के बीच वार्ताओं का एजेंडा तय करने के लिए शुरू हुई थी. यही कारण है कि इसे 'बातचीत पर बातचीत' का नाम दिया गया था.
लेकिन इस बातचीत में, कोई बात नहीं बन पाई.
इसके बाद आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के कार्यकाल में अक्टूबर 2004 में नक्सलियों से बातचीत की शुरुआत की गई.
इस बातचीत का नेतृत्व कर रहे अक्कीराजू हरगोपाल उर्फ रामकृष्ण उर्फ आरजे उर्फ साकेत ने बातचीत से एक दिन पहले कहा कि शांति वार्ता की यह कोशिश भी दूसरी तरह का युद्ध है.
15 अक्टूबर से 17 अक्टूबर 2004 तक, तीन दिनों की बातचीत में माओवादियों ने भूमि सुधार, सुरक्षाबलों की वापसी और जन संगठनों की मान्यता जैसी मांगें रखीं थीं.
शांति वार्ता शुरू होने से पहले ही 11 अक्टूबर को आंध्र प्रदेश के प्रकाशम और महबूबनगर ज़िलों में 6 माओवादी मुठभेड़ में मारे गए.
माओवादी नेता रामकृष्णा ने इसे 'वार्ता की प्रक्रिया बिगाड़ने की चाल' कहते हुए सरकार पर निशाना साधा.
दूसरी ओर बातचीत के दौरान ही 16 अक्टूबर को नक्सलियों ने विधायक आदिकेशवुला नायडू की हत्या कर दी. ज़ाहिर है, ऐसे में यह बातचीत विफल होनी ही थी.
इसके तीन महीने बाद जनवरी 2005 में माओवादी संगठनों ने संयुक्त बयान में कहा कि "अब और वार्ता नहीं की जाएगी क्योंकि सरकार ने धोखा दिया है."
साल 2010 में मनमोहन सिंह की सरकार में गृहमंत्री रहे पी चिदंबरम ने शांति वार्ता की पहल की.
माओवादी संगठन की केंद्रीय समिति के सदस्य और प्रवक्ता चेरिकुरी राजकुमार ऊर्फ़ आज़ाद वार्ता की तैयारी में लगे थे और स्वामी अग्निवेश जैसे मध्यस्थों से संपर्क में थे.
जून 2010 में माओवादी प्रवक्ता आज़ाद ने पत्र लिखकर कहा कि वे संघर्षविराम और वार्ता के लिए तैयार हैं. इसी दौरान आज़ाद और पत्रकार हेमचंद्र पांडे को पुलिस ने 1 जुलाई 2010 को आंध्र प्रदेश में एक मुठभेड़ में मारने का दावा किया और इसी के साथ बातचीत की प्रक्रिया भी ख़त्म हो गई.
इस बातचीत में मध्यस्थ रहे स्वामी अग्निवेश ने सरकार पर आरोप लगाया था कि आज़ाद को पुलिस ने नागपुर से पकड़ा और आंध्र प्रदेश में ले जा कर फर्जी मुठभेड़ में मार दिया.
माओवादियों ने भी कहा कि सरकार वास्तव में वार्ता नहीं, बल्कि नेतृत्व को ख़त्म चाहती थी.

साल 2011 में पश्चिम बंगाल में माओवादी नेता किशनजी ने बातचीत की इच्छा जताई लेकिन 24 नवंबर 2011 को पश्चिम मिदनापुर ज़िले में उनके मारे जाने के बाद यह बातचीत भी शुरु नहीं हो पाई.
किशनजी के मारे जाने को लेकर भी सवाल उठे और बातचीत के लिए सरकार के मध्यस्थों ने भी, किशनजी के मारे जाने के बाद इस्तीफ़ा दे दिया.
माओवादियों के दस्तावेज़ बताते हैं कि इस घटना के बाद भी कई अवसरों पर शांति वार्ता की पेशकश की गई. लेकिन पिछले साल जब बस्तर में सुरक्षाबलों के ऑपरेशन तेज़ हुए तो माओवादियों ने एक के बाद एक, बातचीत की पेशकश की.
इस साल 28 मार्च 2025 को माओवादियों की केंद्रीय समिति ने बयान जारी किया और कहा कि हम वार्ता के लिए तैयार हैं, बशर्ते 'ऑपरेशन कगार' रोका जाए.
इसके बाद 2 अप्रैल को सीपीआई माओवादी की केंद्रीय समिति ने बयान जारी कर कहा कि वे वार्ता को तैयार हैं, बशर्ते 'ऑपरेशन कगार' रोका जाए, नए पुलिस कैंप न बनाए जाएँ और सैन्य अभियानों को रोका जाए.
इसके अगले दिन यानी 3 अप्रैल 2025 को माओवादियों की केंद्रीय समिति के प्रवक्ता अभय ने घोषणा की कि अगर सरकार सकारात्मक प्रतिक्रिया देती है तो वे तुरंत संघर्षविराम घोषित करेंगे.
इसके बाद 25 अप्रैल को औपचारिक अपील जारी करते हुए माओवादी प्रवक्ता अभय ने कहा कि "निर्धारित समय सीमा के साथ संघर्षविराम की घोषणा की जाए और बिना शर्त शांति वार्ता शुरू हो."
लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार ने साफ़ कहा कि माओवादी पहले हथियार छोड़ें, उसके बाद ही कोई बात हो सकती है.
छत्तीसगढ़ के उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा ने कहा कि वार्ता तभी संभव है जब माओवादी आत्मसमर्पण करें. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा कि माओवादी हथियार डालकर मुख्यधारा में आएं.
शांति वार्ता पर संशय
विशेषज्ञों का मानना है कि माओवादियों और सरकार के बीच कभी भरोसा रहा ही नहीं. माओवादियों ने हर बार बातचीत से पहले ऐसी शर्तें रख दीं, जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संभव ही नहीं.
इसी तरह हर दौर में वार्ता के साथ-साथ सैन्य अभियान जारी रहा. वहीं आज़ाद और किशनजी के मारे जाने की घटनाओं ने सरकार के प्रति कहीं न कहीं अविश्वास पैदा किया.
छत्तीसगढ़ के एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी के मुताबिक माओवादी चाहते रहे कि शांति वार्ता में आत्मसमर्पण और हिंसा से आगे बढ़ कर बात हो. माओवादी चाह रहे थे कि भूमि सुधार, आदिवासी अधिकार, विस्थापन, खनन परियोजनाओं, लोकतांत्रिक स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर चर्चा भी हो.
लेकिन सरकार की समझ साफ़ थी कि वार्ता केवल कानून-व्यवस्था और सुरक्षा के मुद्दे पर ही हो सकती है.
वे कहते हैं, "शांति वार्ता की शर्तों में हमेशा से असहमति रही. माओवादी हमेशा यह शर्त रखते रहे कि सुरक्षाबलों के अभियान रोके जाएँ, दूसरी ओर सरकार हर बार हथियार डालने और आत्मसमर्पण पर ज़ोर देती रही. एक तरफ़ वार्ता की बात होती रही, दूसरी ओर माओवादी हिंसा और मुठभेड़ जारी रही. ऐसे में न कभी शांति वार्ता हो पाई और ना ही उसकी कोई गुंजाइश अब नज़र आती है."
पुलिस अधिकारी का कहना है कि भारत में सीपीआई माओवादी सबसे बड़ा संगठन है लेकिन उसके अलावा माओवादियों के कम से कम 18 और संगठन हैं, जो छोटे-बड़े इलाकों में सक्रिय हैं.
एक बड़ा सवाल तो यह भी है कि सीपीआई माओवादी के सारे सदस्य हथियार रख दें तो भी क्या दूसरे माओवादी संगठन भी इसी रास्ते को अपनाएंगे?
यूं भी माओवादी संगठनों में, लोकतांत्रिक राजनीति का रास्ता अपनाने वालों को 'संशोधनवादी' घोषित कर के, हिंसक राजनीति को जारी रखने की एक लंबी परंपरा है.
लेकिन घोर नक्सल इलाके के एक छोटे से गांव 'संगम' में रहने वाले आदिवासी पत्रकार मनकू नेताम के पास अपनी चिंता है.
उनका कहना है कि यदि माओवादी सचमुच हथियार छोड़ते हैं, तो उनके लिए सम्मानजनक पुनर्वास, राजनीतिक भागीदारी और आदिवासी इलाकों में बुनियादी विकास सुनिश्चित करना ज़रूरी होगा.
दूसरी ओर, यदि सरकार केवल सैन्य दबाव और आत्मसमर्पण पर टिके रहने की नीति अपनाती है, तो हिंसा भले दबे, पर ख़त्म नहीं होगी और ये असमानताओं की ज़मीन पर नए रूपों में फिर उभर सकती है.
मनकू नेताम कहते हैं, "मुद्दा केवल इतना भर नहीं है कि माओवादी बंदूक छोड़ते हैं या नहीं. असली सवाल यह है कि क्या भारत उन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को बदल पाएगा, जिसके कारण नक्सली आंदोलन पनपा और उसने देश के इतने बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया."
"जब तक आदिवासी समाज को शिक्षा, रोज़गार और सम्मानजनक जीवन के अवसर नहीं मिलते, तब तक इस तरह की हिंसा की जमीन बनी रहेगी और नए रूपों में सामने आती रहेगी. सरकार के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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